हज़रत शेखुल-हिन्द मौलाना महमूदुल-हसन देवबंदी रहिमहुल्लाह
हज़रत शेखुल-हिन्द मौलाना महमूदुल-हसन देवबंदी रहिमहुल्लाह हिन्दुस्तान के एक जलीलुल-क़द्र आलिमे दीन थे। उन की विलादत (पैदाइश) सन हिजरी १२६८ में (सन इस्वी १८५१) हुई। उन का सिलसिला-ए-नसब (खानदानी सिलसिला) हज़रत उस्मान रदि अल्लाहु अन्हु तक पहुंचता है और वो दारुल उलूम देवबंद के पहले तालिबे इल्म थे।
अल्लाह सुब्हानहु व त’आला ने उन्हें दारुल उलूम देवबंद में चवालीस साल तक पढ़ाने का मौका अता फ़रमाया था। उस दौरान हजारों तलबा ने उन से इस्तिफ़ादा किया। उन में हज़रत मौलाना अशरफ़ अली थानवी रहिमहुल्लाह और अल्लामा अनवर शाह कश्मीरी रहिमहुल्लाह सर-ए-फ़िहरिस्त हैं।
नीचे दो घटनाएं नक़ल की जा रही हैं उनसे इस बात का पता चलता है कि हज़रत मौलाना महमूदुल-हसन देवबंदी रहिमहुल्लाह अह़कामे दीन नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत पर कितनी पाबंदी से अमल करते थे।
परदेह के बारे में शरीअत की इत्तिबा’
हिंदुस्तान पर कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज़ों ने मुसलमानों पर ज़ुल्म-ओ-सितम शुरू कर दिया और श’आइरे इस्लाम (इस्लामी निशानियां और रूसुमात) को मिटाने लगे, जब हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह ने यह सूरत-ए-हाल देखी तो वो बेचैन हो गए और तहरीके ख़िलाफत का आगाज़ कर दिया और अंग्रेज़ों के खिलाफ जिहाद का एलान भी कर दिया ताकि उनका हिंदुस्तान से इख़राज (निकाल) दिया जाए; लेकिन किसी तरीके से अंग्रेज़ों को हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह के मनसूबे का इल्म हो गया और उन्होंने उनको गिरफ्तार कर के माल्टा की जेल में दाल दिया। हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह तकरीबन तीन साल माल्ता की जेल में रहे।
जूँही हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह को गिरफ्तार किया गया है, उनके शागिर्द हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी रहिमहुल्लाह फौरन पुलिस के पास आए और उस से कहा कि मुझे भी गिरफ्तार कर लो; ताकि वह अपने उस्ताद के साथ जेल में रह सकें, जो उस वक्त बीमार और कमजोर थे और उनकी खिदमत कर सकें; चुनाचें उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। जब तक दोनों जेल में रहे, शागिर्द ने पूरी शफ़क़त-ओ-मोहब्बत के साथ अपने उस्ताद की खिदमत की।
जब हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह की रिहाई हुई और आप हिंदुस्तान वापस आए तो हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह का पूरा खानदान हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी रहिमहुल्लाह का बेपनाह शुक्रगुजार था, ख़ास तौर पर हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह की अहलिया मोहतरमा (बीबी) बहुत ज्यादा मुतअस्सिर (प्रभावित, जिस पर किसी बात का असर हुआ हो) थीं; क्यूंकि हज़रत मदनी रहिमहुल्लाह का बचपन देवबंद में गुज़रा था और उनका हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह के घर आना-जाना था; इसलिए हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह की अहलिया मोहतरमा के दिल में उनके लिए बहुत ज्यादा मोहब्बत थी।
चुनाचें जब हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह की अहलिया मोहतरमा ज़’ईफ़-उल-‘उम्र (ज़्यादा उम्र वाली) हो चुकी थीं, उनकी ख्वाहिश थी कि वह पर्दे के बगैर हज़रत मौलाना मदनी रहिमहुल्लाह से बात करें ताकि वह निजी तौर पर उनका शुक्रिया अदा करें कि उन्होंने हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह का जेल के अंदर बहुत ज्यादा ख्याल रखा और उनकी हर तरह से खिदमत की।
जब उन्होंने हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह से अपनी ख्वाहिश का इजहार किया तो हज़रत रहिमहुल्लाह ने इंतिहाई रिक़्क़त-आमेज़ लेहजे में फ़रमाया कि अगर जेल में मेरे साथ मेरा बेटा होता तो वह इतनी खिदमत नहीं कर सकता था, जितनी खिदमत हुसैन अहमद ने की थी। मेरा दिल भी चाहता है कि तुम व्यक्तिगत रूप से उनका शुक्रिया अदा करो; मगर शरीअत का हुकम है कि नामह़रम मर्दो से पर्दा किया जाए लिहाजा अगर तुम हुसैन अहमद से बगैर पर्दे के बात करोगी तो तुम गुनेहगार होगी।
हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह की अहलिया भी बहुत दीनदार थीं; लिहाजा उन्होंने हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह की बात कबूल की और जब हज़रत मदनी रहिमहुल्लाह उनकी जि़यारत के लिए आते थे तो वह इस बात का एहतिमाम (बंदोबस्त) करती थीं कि वह पर्दे के पीछे रहें।
उम्मते मुस्लिमा के दरम्यान इत्तिहाद-ओ-इत्तिफाक़ पैदा करना और दीन को जिंदा करने की फ़िक्र
माल्टा की क़ैद से वापस आने के बाद एक रात बाद ‘इशा हज़रत शेखुल-हिन्द रहिमहुल्लाह दारुल उलूम में तशरीफ़ फ़रमा थे।
‘उलमा ए किराम का बड़ा मज्मा’ (समूह) सामने था। उस वक्त फ़रमाया: हम ने तो माल्टा की जिन्दगी में दो सबक़ सिखे हैं।
ये अल्फाज़ सुनकर सारा मज्मा’ हमा-तन-गोश हो गया कि इस उस्तादुल-उलमा दुर्वेश ने अस्सी साल उलमा को दरस देने के बाद आखिर उम्र में जो सबक़ सिखे हैं, वो क्या हैं?
(हमा-तन-गोश होना= सर से पाँव तक कान बन जाना, यानी किसी बात को पूरे ध्यान के साथ सुनने वाला होना)
फ़रमाया कि:
मैंने जहां तक जेल की तन्हाईओं में इस बात पर गौर किया कि पूरी दुनिया में मुसलमान दीनी और दुनयवी हर हैसियत से क्यूं तबाह हो रहे हैं, तो उसके दो सबब मालूम हुए:
(१) एक उनका क़ुराने करीम को छोड़ देना।
(२) दूसरे आपस के इख़्तिलाफ़ात और ख़ाना-जंगी।
इसलिए मैं वहीं से यह ‘अज़्म (पुख्ता इरादा) ले कर आया हूं कि अपनी बाकी जिंदगी इस काम में सर्फ करुं कि कुराने करीम को लफ़्ज़न और मा’नन (मतलब की रू से) आम किया जाए। बच्चों के लिए लफ्ज़ी तालीम के मका़तिब हर हर बस्ती में का़ईम किये जाए। बड़ों को अवामी दरसै क़ुराने करीम की सूरत में उस के म’आनी-मतलब से रू-शनास (वाकिफ) कराया जाए और कुरानी तालीमात पर अमल के लिए आमादा (तैयार) किया जाए इसी तरह मुसलमानों के बाहमी जंग-ओ-जिदाल को किसी क़ीमत पर बर्दाश्त न किया जाए।