फज़ाइले-सदकात – १२

‘उलमा-ए-आख़िरत की बारह अलामात

सातवीं अलामत

सातवीं अलामत उलमा-ए-आख़िरत की यह है कि उसको बातिनी इल्म यानी सुलूक का एहतिमाम बहुत ज़्यादा हो। अपनी इस्लाहे-बातिन और इस्लाहे-कल्ब में बहुत ज्यादा कोशिश करने वाला हो कि यह उलूमे-ज़ाहिरिया में भी तरक्की का ज़रिया है।
(इस्लाहे-बातिन= बिगड़ी हुई मन की अंदरूनी हालत को ठीक करना।)
(इस्लाहे-कल्ब = दिल की बिगड़ी हुई हालत को ठीक करना।)

हुज़ूरे-अक़्दस सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इर्शाद है कि जो अपने इल्म पर अमल करे, हक तआला शानुहू उसको ऐसी चीज़ों का इल्म अता फरमाते हैं जो उसने नहीं पढ़ीं।

पहले अंबिया (अलैहिमुस्सलाम) की किताबों में है कि बनी इस्राईल! तुम यह मत कहो कि उलूम आसमान पर हैं, उनको कौन उतारे या वो ज़मीन की जड़ों में हैं उनको कौन ऊपर लाए या वो समुन्दरों के पार हैं, कौन उन पर गुज़रे ताकि उनको लाए, उलूम तुम्हारे दिलों के अंदर हैं।

तुम मेरे सामने रूहानी हस्तियों के आदाब के साथ रहो, सिद्दीकीन के अख़्लाक इख़्तियार करो, मैं तुम्हारे दिलों में से उलूम को ज़ाहिर कर दूँगा, यहां तक कि वो उलूम तुमको घेर लेंगे और तुमको ढांक लेंगे और तजुर्बा भी इसका शाहिद (गवाह) है कि अहलुल्लाह (अल्लाह वालो) को हक तआला शानुहू वो उलूम और मआरिफ अता फरमाता है कि किताबों में तलाश से भी नहीं मिलते।

हुज़ूरे-अक़्दस सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम का पाक इर्शाद, जिसको हक तआला शानुहू से नकल फ़रमाते हैं कि मेरा बंदा किसी ऐसी चीज़ के साथ मुझसे तकरूब हासिल नहीं कर सकता जो मुझे ज़्यादा महबूब हो, उन चीज़ों से जो मैं ने उस पर फर्ज़ कीं (जैसा कि नमाज़, ज़कात, रोज़ा, हज वगैरह यानी जितना तकरूब फराईज़ के अच्छी तरह अदा करने से हासिल होता है ऐसा तकर्रब दूसरी चीज़ों से नहीं होता) और बंदा नवाफिल के साथ भी मेरे साथ तक़र्रुब हासिल करता रहता है, यहां तक कि मैं उसको महबूब बना लेता हूँ और जब मैं उसको महबूब बना लेता हूँ तो मैं उसका कान बन जाता हूँ जिससे वह सुनता है और उसकी आंख बन जाता हूँ जिससे वह देखता है, और उसका हाथ बन जाता हूँ जिससे वह किसी चीज़ को पकड़ता है, और उसका पांव बन जाता हूँ जिससे वह चलता है, अगर वह मुझसे सवाल करता है तो मैं उसको पूरा करता हूँ और वह किसी चीज़ से पनाह चाहता है तो उसको पनाह देता हूँ। यानी उसका चलना-फिरना, देखना-सुनना सब काम मेरी रिज़ा (ख़ुशी) के मुताबिक हो जाते हैं।

और बाज़ हदीसों में इसके साथ यह मज़्मून भी आया है कि जो शख़्स मेरे किसी वली (दोस्त) से दुश्मनी करता है वह मुझ से, ऐलाने-जंग करता है।

और चूंकि औलिया अल्लाह (अल्लाह के दोस्तो) का गौरो-फिक्र सब ही हक तआला शानुहू के साथ वाबस्ता हो जाता है, इसी वजह से कुरआन-पाक के दकीक उलूम (बारीकियाँ) उनके कुलूब (दिलो) पर मुन्कशिफ़ हो जाते हैं (खुल जाती हैं), उसके असरार उन पर वाज़ेह हो जाते हैं। बिलखुसूस ऐसे लोगों पर जो अल्लाह तआला के ज़िक्रो-फिक्र के साथ हर वक़्त मशगूल रहते हैं और हर शख़्स को इसमें से हस्बे तौफीक उतना हिस्सा मिलता है जितना कि अमल में उसका एहतिमाम और उसकी कोशिश होती है।

हज़रत अली रद़ियल्लाहु अन्हु ने एक बड़ी तवील हदीस में उलमा-ए-आख़िरत का हाल बयान फरमाया है, जिसको इब्ने-कय्यिम रह़िमहुल्लाह ने “मिफ़्ताहु-दारूस्-सआदत” में और अबू-नुईम रह़िमहुल्लाह ने “हिल्यह” में ज़िक्र फरमाया है।

उसमें फरमाते हैं कि कुलूब ब-मंज़िला-ए-बर्तन के हैं और बेहतरीब कुलूब वो हैं जो खैर को ज़्यादा से ज़्यादा महफूज़ रखने वाले हैं। इल्म का जमा करना माल के जमा करने से बेहतर है कि इल्म तेरी हिफाज़त करता है और माल की तुझको हिफाज़त करनी पड़ती है। इल्म खर्च करने से बढ़ता है और माल खर्च करने से कम होता है। माल का नफ़ा उसके ज़ायल होने (खर्च करने) से ख़त्म हो जाता है। लेकिन इल्म का नफा हमेशा हमेशा बाकी रहता है (आलिम के इंतिकाल से भी ख़त्म नहीं होता कि उसके इर्शादात बाकी रहते हैं।)

फिर हज़रत अली रद़ियल्लाहु अन्हु ने एक ठंडा सांस भरा और फ़रमाया कि मेरे सीने में उलूम हैं, काश! उसके अहल (लायक) मिलते, मगर मैं ऐसे लोगों को देखता हूँ जो दीन के असबाब (सामान) को दुनिया तलबी में ख़र्च करते हैं या ऐसे लोगों को देखता हूँ जो लज़्ज़तों में मुन्हमिक (लीन,मग्न) हैं, शहवतों की तलब की ज़ंजीरों में जकड़े हुए हैं या माल जमा करने के पीछे पड़े हुए हैं।

ग़र्ज़ यह तवील मज़्यून है जिसके चंद फिकरे यहां नकल किये हैं।

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