लोगों की इस्लाह के वक्त रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का अंदाज

अम्र बिल मारूफ और नही ‘अनिल मुन्कर ( नेक कामों का हुकम देना और बुरे कामों से रोकना) दीन का एक अहम फ़रीज़ा (कर्तव्य) है; लेकिन इन्सान के लिए जरूरी है कि वह जिस की इस्लाह करना चाहता है उसके बारे में उसको इल्म हो, नीज़ उस को यह भी मालूम होना चाहिए कि इस्लाह का कौन सा तरीका किस जगह असरकारक और कारगर साबित होगा।

लिहाजा अगर कोई शख्स नया मुसलमान हो और वो इस्लाम के अहकाम से नावाकिफ हो, तो ऐसे आदमी की इस्लाह के वक्त सख्ती नहीं करनी चाहिए; क्यूंकि वो ज़हालत और नावाकिफ होने की बिना पर गलती कर रहा है; बल्कि शफ़क़त-ओ-मोहब्बत के साथ दीन की तालीम दी जाए।

नीचे सीरते नबवी के दो वाक़ि’ऐ नक़ल किए जा रहे हैं, जिन से यह बात अच्छी तरह वाज़ेह होती है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम लोगों की इस्लाह किस तरह करते थे। पहेला वाक़ि’आ आम आदमी (जो आलिम न हो) की इस्लाह के बारे में है और दूसरा वाक़ि’आ आलिम की इस्लाह के बारे में है।

एक देहाती की इस्लाह का वाकि’आ

हज़रत अबू हुरैरा रदि अल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि एक देहाती नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद में दाखिल हुआ, मस्जिद में दाखिल होने के बाद उसने दो रकात नमाज़ पढ़ी, फिर उसने निम्नलिखित अल्फाज़ से दुआ की: ऐ अल्लाह! तु मुझ पर और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर अपना ख़ास रहम फ़रमा और हमारे साथ किसी और पर रहम न फ़रमा!

उस देहाती की दुआ सुनकर नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम उसकी तरफ मुतवज्जह हुऐ और उससे फरमाया:

तुम ने एक कुशादा चीज़ को बहुत तंग कर दिया (यानी अल्लाह त’आला की रहमत तो बहुत कुशादा (विस्तृत) है और पूरी मख्लूक का इहाता कर (घेर) सकती है; लेकिन तुमने अपनी दुआ में उस को सिर्फ दो आदमियों के साथ ख़ास कर के तंग कर दिया)।

फिर उस देहाती ने नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से सवाल किया: क़यामत कब आएगी? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उस से दरयाफ़्त किया: तुम ने उसकी क्या तैयारी कर रखी है? उसने कहा: मैंने उसके लिए न बहुत सी नमाजें पढ़ीं न बहुत से रोज़े रखे और न बहुत से सदकात दिये; मगर मुझे अल्लाह और अल्लाह के रसूल से मुहब्बत है, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उस से फ़रमाया: तुम (क़यामत में) उसके साथ होंगे, जिस से तुम मुहब्बत करते हो।

जब सहाबा ए किराम रदि अल्लाहु ‘अन्हुम ने ये अज़ीम फजीलत सुनी, तो उन्होंने हज़रत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से अर्ज किया: क्या हमारे साथ भी यही मामला होगा? ( यानी क्या यह सवाब और फजीलत हमारे लिए भी होगा) नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: हां, तुम्हारे साथ भी यही मामला होगा (यानी तुमको भी यही सवाब और फजीलत मिलेगा)।

उसको सुनकर सहाबा ए किराम रदि अल्लाहु ‘अन्हुम बहुत ज्यादा खुश हुए। इस हदीस के रावी हज़रत अनस रदि अल्लाहु ‘अन्हु फ़रमाते हैं कि मैंने सहाबा ए किराम (रदि अल्लाहु ‘अन्हुम) को इस्लाम लाने के बाद किसी और चीज से इतना खुश होते हुए नहीं देखा, जितना उस दिन ख़ुश होते हुए देखा।

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से क़यामत के बारे में दर्याफत करने के बाद उस देहाती को क़ज़ा-ए-हाजत (शौचकर्म) की जरूरत पेश आई, तो वह उठे और मस्जिद के एक कोने में जाकर पेशाब करने लगे (क्यूंकि वो नए मुसलमान थे और वो मस्जिद के आदाब से वाकिफ नहीं थे)।

जब सहाबा ए किराम रदि अल्लाहु ‘अन्हुम ने ये देखा, तो वो जल्दी से उसकी तरफ बढ़े और उसको डांटा; लेकिन नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनको डांटने से मना फ़रमाया और उनसे फ़रमाया कि उसको छोड़ दो; इस लिए कि हो सकता है कि वह अहले जन्नत में से हो।

जब वह देहाती अपनी जरूरत से फारिग हुए, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा ए किराम रदि अल्लाहु ‘अन्हुम को हुक्म दिया कि वह उस जगह पर पानी बहाए, जहां उस देहाती ने पेशाब किया था, फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा ए किराम रदि अल्लाहु ‘अन्हुम से फ़रमाया:

अल्लाह त’आला ने तुम को उम्मत में सिर्फ आसानी करने वाले बनाए। तुम को तंगी करने वाले नहीं बनाए (लिहाजा तुम्हें चाहिए कि तुम लोगों पर शफकत करो)।

इस वाक़िए से मालूम हुआ कि अगर कोई शख्स इल्म के न होने की बिना पर गलती करे, तो इस्लाह करने वाले को चाहिए कि इस्लाह के वक्त उससे नर्मी से पेश आए और उसके साथ सख्ती न करे।

फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उस देहाती को बुलाया और इन्तिहाई नर्मी और शफकत से फ़रमाया:

ये मस्जिदें अल्लाह के घर हैं, ये मस्जिदें पेशाब और गंदगी के लिए नहीं बनाई गई हैं।

हज़रत रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इतनी शफकत-ओ-मुहब्बत के साथ उस देहाती की इस्लाह फ़रमाई कि उसने पूरी जिंदगी इस वाक़िए को भूला नहीं; चुनांचे जब वो इस वाक़िए को याद करते थे, तो वो लोगों से फ़रमाते थे:

नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मेरी तरफ बढ़े। मेरे मां बाप उनपर क़ुर्बान हो। उन्होंने न मुझे बुरा भला कहा, न मुझे डांटा और न मुझे मारा; ( बल्कि आप ने मेरी इस्लाह की और निहायत ही मेहरबान के साथ और मुहब्बत भरे अंदाज में मुझे तालीम दी)।

एक आलिम की इस्लाह का वाकि’आ

एक रिवायत में आया है कि एक मर्तबा एक शख्स ने मस्जिद में कुछ लोगों की इमामत की। नमाज़ पढ़ते हुए उसने कि़बले की जानिब थूक दिया।

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को जब इस बात का इल्म हुआ तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने लोगों से फ़रमाया: आइन्दह यह शख्स तुम्हारी इमामत न करे, ( इसलिए कि उसने मस्जिद की बेअदबी की)

उसके बाद उस शख्स ने लोगों की इमामत का इरादा किया; लेकिन लोगों ने उस को रोक दिया और उस को रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बात बताई।

जब वह शख्स नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया, तो उसने आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से उसका जिक्र किया, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया: हां (मैंने मना किया है)। आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने यह भी फ़रमाया था: तुमने अल्लाह और उसके रसूल को तकलीफ़ पहोंचाई है।

इन दोनों वाकि’ओ से हम समझते हैं कि लोगों की इस्लाह करने में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तरीका और अंदाज क्या था और आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम किस अंदाज से लोगों की इस्लाह और तरबियत फ़रमाते थे।

जिस शख्स के पास इल्मे दीन था, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सख्ती से उसकी इस्लाह फ़रमाई; क्यूंकि उसने बेतौजीही और गफलत की वजह से गलती की थी; लिहाजा ऐसी सूरत में सख्ती की जरूरत थी।

जिस के पास इल्मे दीन नहीं था, आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नर्मी से उसकी इस्लाह फ़रमाई; क्यूंकि उसने इल्म के न होने की बिना पर गलती की थी।

खुलासा बात यह है कि नबी ए करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने तर्ज़े अमल से पूरी उम्मत के लिए इस्लाह का तरीका सिखाया।

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