ज़िल हिज्जह की सुन्नतें और आदाब

(१) ज़िल हिज्जह के पेहले दस दिनों में ख़ूब इबादत करें. इन दस दिनों में इबादत करने की बहोत ज़्यादा फ़ज़ीलतें वारिद हुई हैं.

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रदी अल्लाहु अन्हु  से रिवायत है के नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया के “जो भी नेक अमल साल के दूसरे दिनों में किया जाए, वह उस नेक अमल से अफ़ज़ल नहीं है जो इन दस दिनों में किया जाए.” सहाबए किराम रदी अल्लाहु अन्हुम ने अर्ज़ किया “जिहाद भी नहीं?” आप सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने फ़रमाया “जिहाद भी नहीं, मगर यह के कोई शख़्स (जिहाद में) अपनी जान और अपना माल ख़तरे में ड़ाल दे और किसी चीज़ के साथ न लोटे (यअनी इन दस दिनों में जिहाद का षवाब साल के दूसरे दिनों में जिहाद से ज़्यादा है मगर यह के वह जिहाद करे और शहीद हो जाए).” (बुख़ारी शरीफ़)

(२) ज़िल हिज्जह के पेहले दस दिनों में रोज़े रखने की कोशिश करें. इन दस दिनों में (दसवीं ज़िल हिज्जह के अलावह) जो आदमी रोज़ा रखे, तो उस को हर रोज़े के बदले पूरे साल रोज़े रखने का षवाब मिलेगा.

(३) ज़िल हिज्जह की पेहली दस रातों में ज़्यादा से ज़्यादा इबादत करें, क्युंकि इन रातों में इबादत का षवाब शबे क़दर में इबादत करने के षवाब के बराबर है.

हज़रत अबु हुरैरह रदी अल्लाहु अन्हु से रिवायत है के नबीए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया के “साल के किसी भी दिन में इबादत करना अल्लाह तआला को इतना महबूब नहीं, जितना ज़िल हिज्जह के दस दिनों में इबादत करना महबूब है. इन दस दिनों में (दसवीं ज़िल हिज्जह के अलावह) हर दिन का रोज़ा साल भर के रोज़ों के बराबर है और इन दस दिनों में हर रात की इबादत शबे क़दर की इबादत के षवाब के बराबर है.” (तिर्मिज़ी)

एक दूसरी हदीष शरीफ़ में हज़रत हफ़सा रदी अल्लाहु अन्हा से मनक़ूल है के नबीए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम चार आमाल नहीं छोड़ते थेः (१) आशूरा का रोज़ा (२) ज़िल हिज्जह के पेहले दस दिनों का रोज़ा (दसवीं ज़िल हिज्जह के अलावह) (३) हर महीने तीन दिनों का रोज़ा (४) फ़जर से पेहले दो रकअत सुन्नत का पढ़ना. (सुनने नसई)

(४) नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम का फ़रमान है के जो शख़्स साल की पांच रातों में इबादत करे उस के लिए जन्नत वाजिब हो जाएगी. वह पांच रातें यह हैः

(१) लयलतुत तरवियह (आंठवीं ज़िल हिज्जह की रात)

(२) अरफ़ा की रात (नवीं ज़िल हिज्जह की रात)

(३)वलयलतुन नहर (दसवीं ज़िल हिज्जह की रात)

(४) ईदुल फ़ित्र की रात

(५) शबे बराअत (पंदरहवीं शाबान की रात).

हज़रत मुआज़ बिन जबल रदी अल्लाहु अन्हु से रिवायत है के नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया के “जो शख़्स साल की पांच रात इबादत से ज़िन्दा करे (यअनी इन रातों को इबादत में गुज़ारे) उस के लिए जन्नत वाजिब हो जाएगी (वह पांच रातें यह हैं) तरवियह की रात (आंठवीं ज़िल हिज्जह की रात), अरफ़ा की रात (नव्वीं ज़िल हिज्जह की रात) यवमुन नहर (दसवीं ज़िल हिज्जह की रात), इदुल फ़ितर की रात और पंदरहवीं शाबान की रात.” (अत् तरगीब वत् तरहीब)

(५) जो शख़्स एहराम की हालत में न हो, उस के लिए अरफ़ा के दिन (नव्वीं ज़िल हिज्जह) रोज़ा रखना मुस्तहब है. अरफ़ा के दिन रोज़ा रखने वाले को एक साल रोज़ा रखने का षवाब मिलता है और उस के दो साल के गुनाह माफ़ किए जाते हैं.

हज़रत अबु क़तादा (रज़ि.) फ़रमाते हैं के एक सहाबी ने नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम से सवाल किया “ए अल्लाह के रसूल ! आशूरा के दिन रोज़ा रखने वाले को क्या षवाब मिलेगा?” नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने जवाब दिया “आशूरा के दिन रोज़ा रखने का षवाब पूरे साल रोज़ा रखने के षवाब के बराबर है.” फिर उस सहाबी ने सवाल किया “अरफ़ा के दिन रोज़ा रखने का क्या षवाब है?” नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने जवाब दिया “अरफ़ा का रोज़ा मौजूदा साल और गुज़िश्ता साल के (सग़ीरा) गुनाहों को मिटा देता है.” (सहीह इब्ने हिब्बान)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रदी अल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं के “में ने नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम के साथ हज किया (तो में ने देखा के) आसल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने अरफ़ा के दिन (हज के दौरान) रोज़ा नहीं रखा. में ने हज़रत अबु बकर रदी अल्लाहु अन्हु के साथ हज किया. उन्होंने भी (हज में) अरफ़ा के दिन रोज़ा नहीं रखा. इसी तरह में ने हज़रत उमर रदी अल्लाहु अन्हु के साथ हज किया, उन्होंने भी (हज में) अरफ़ा के दिन रोज़ा नहीं रखा. फिर में ने हज़रत उषमान रदी अल्लाहु अन्हु के साथ हज किया, तो उन्होंने भी अरफ़ा के दिन (हज में) रोज़ा नहीं रखा.” (सुनने तिर्मिज़ी)

(६) अरफ़ा के दिन कषरत से निम्नलिखित दुआ पढ़ेंः

لَا إِلٰهَ إِلَّا اللهُ وَحْدَهُ لَا شَرِيْكَ لَهُ لَهُ الْمُلْكُ وَلَهُ الْحَمْدُ وَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ

अल्लाह के अलावह कोई माबूद नहीं है. वह अकेला है. उन का कोई शरीक नहीं है. उन ही के लिए (तमाम जहां की) बादशाहत है और उन ही के लिए (तमाम) तारीफ़ है. उन ही के हाथ में भलाई है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है.

(७) अरफ़ा के दिन ख़ूब दुआ करें. यह दिन मुबारक दिन है, यह दिन ज़िल हिज्जह के दूसरे दस दिनों से भी अफ़ज़ल है.

अरफ़ा के दिन हाजी ख़ूब दुआ करें, क्युंकि यह बहोत मुबारक दिन है. यह दिन ज़िल हिज्जह के पेहले दस दिनों का सब से अफ़ज़ल दिन है.

हज़रत अली (रज़ि.) से मनक़ूल है के अल्लाह तआला अरफ़ा के दिन दूसरे दिनों के मुक़ाबले सब से ज़्यादा लोग जहन्नम से आज़ाद करते हैं.

हज़रत अली (रज़ि.) अरफ़ा के दिन निम्नलिखित दुआ मांगते थे और अपने साथियों को भी इस दुआ को पढ़ने की तरग़ीब देते थेः

اَللّٰهُمَّ أَعْتِقْ رَقَبَتِيْ مِنَ النَّارِ وَأَوْسِعْ لِيْ مِنَ الرِّزْقِ الْحَلالِ وَاصْرِفْ عَنِّيْ فَسَقَةَ الْجِنِّ ‏وَالْإِنْسِ

ए अल्लाह ! मेरी गरदन को जहन्नम की आग से आज़ाद फ़रमा दे और हलाल रोज़ी को मेरे लिए फ़राख़ और कुशादा फ़रमा दे और बुरे जिन और बुरे इन्सान को मुझ से दूर फ़रमा दे.

(८) हाजी को चाहिए के नवीं ज़िल हिज्जह को अरफ़ा में वुक़ूफ़ के दौरान सो बार निम्नलिखित कलिमात पढ़ेः

لَا إِلٰهَ إِلَّا اللهُ وَحْدَهُ لَا شَرِيْكَ لَهُ لَهُ الْمُلْكُ وَلَهُ الْحَمْدُ وَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ

अल्लाह के अलावह कोई माबूद नहीं है. वह अकेला है. उन का कोई शरीक नहीं है. उन ही के लिए (तमाम जहां की) बादशाहत है और उन ही के लिए (तमाम) तारीफ़ है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है.

फिर सो मर्तबा (१००) सुरए इख़्लास पढ़े और उस के बाद सो मर्तबा (१००) निम्नलिखित दुरूद पढ़ेः

اَللَٰهُمَّ صَلِّ عَلٰى مُحَمَّدٍ كَمَا صَلَّيْتَ عَلٰى إِبْرَاهِيْمَ وَآلِ إِبْرَاهِيْمَ إِنَّكَ حَمِيْدٌ مَّجِيْدٌ وَعَليْنَا ‏مَعَهُمْ

ए अल्लाह ! दुरूद (अपनी ख़ास रहमत) भेज मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) पर जिस तरह तु ने दुरूद (अपनी ख़ास रहमत) भेजा हज़रत इब्राहीम (अलै.) पर और हज़रत इब्राहीम (अलै.) की औलाद पर. बेशक आप तारीफ़ के क़ाबिल और बुज़ुर्ग-ओ-बरतर है. और उन के साथ हम पर भी (रहमत) नाज़िल फ़रमा.

हज़रत जाबिर (रज़ि.) से रिवायत है के रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया के जो भी मुसलमान (हाजी) अरफ़ा के दिन ज़वाल के बाद मैदाने अरफ़ात में क़िब्ले रूख़ हो कर वुक़ूफ़ करे और मज़कूरा बाला अज़कार पढ़े, तो अल्लाह तआला फ़रिश्तो कों उस के बारे में फ़रमाते हैं के

“ए मेरे फ़रिश्तो ! मेरे उस बंदे का क्या बदला है जिस ने मेरी तस्बीह की और मेरी वहदानियत की गवाही दी और मेरी बड़ाई और अज़मत बयान की, मुझे पेहचाना,  मेरी तारीफ़ की और मेरे नबी सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम पर दुरूद भेजा. ए मेरे फ़रिश्तो ! तुम गवाह रहो के में ने उस को बख़्श दिया और उस को शफ़ाअत का शर्फ़ अता किया. अगर मेरा बंदा इस तमाम अहले मोक़िफ़ (अहले अरफ़ात) के लिए सिफ़ारिश करे, तो में उस की सिफ़ारिश क़बूल करूंगा.”

(९) जिन लोगों को क़ुर्बानी करने का इरादा हो, तो उन के लिए मुस्तहब है के वह ज़िल हिज्जह के शुरू से लेकर क़ुर्बानी के जानवर के ज़बह होने तक अपने बाल और नाख़ुन को न काटें.

हज़रत उम्मे सलमा रदी अल्लाहु अन्हा से रिवायत है के नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया के जिस शख़्स को क़ुर्बानी करने का इरादा हो, तो जब (ज़िल हिज्जह का) पेहला चांद नज़र आए, तो उस को चाहिए के वह अपने नाख़ुन और बाल न काटे यहांतक के वह अपनी क़ुर्बानी का जानवर ज़बह करे.

(१०) मर्द और औरत नवीं ज़िल हिज्जह की फ़जर से तेरहवीं ज़िल हिज्जह की असर तक तकबीरे तशरीक़ पढ़ें. मर्द आवाज़ से पढ़े और औरत आहिस्ता पढ़े.

तकबीरे तशरीक़ यह हैः

اَللهُ أَكْبَرْ اَللهُ أَكْبَرْ لَا إِلٰهَ إِلَّا اللهُ اَللهُ أَكْبَرْ اَللهُ أَكْبَرْ وَلِلّٰهِ الْحَمْدْ

अल्लाह तआला सब से बड़े है. अल्लाह तआला सब से बड़े है. अल्लाह के अलावह कोई माबूद नहीं है. अल्लाह तआला सब से बड़े है. अल्लाह तआला सब से बड़े है. और अल्लाह ही के लिए तमाम तारीफ़ है.

हज़रत अली रदी अल्लाहु अन्हू के बारे में मनक़ूल है के “वह अरफ़ा के दिन (नव्वीं ज़िल हिज्जह) की फ़जर से अय्यामे तशरीक़ के आख़री दिन (तेरहवीं ज़िल हिज्जह) की असर तक तकबीरे तशरीक़ पढ़ते थे.”

(११) ज़िल हिज्जह के पेहले दस दिनों में कषरत से निम्नलिखित कलिमात पढ़ेः

سُبْحَانَ اللهِ اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ لَا إِلٰهَ إِلَّا اللهُ اَللهُ أَكْبَرْ

अल्लाह की ज़ात पाक है. तमाम तारीफ़ें अल्लाह के लिए हैं. अल्लाह के अलावह कोई माबूद नहीं है. अल्लाह तआला सब से बड़े है.

हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रदी अल्लाहु अन्हु से मरवी है के रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया के नहीं है कोई दिन (साल के दिनों में) जिस में अल्लाह तआला की इबादत ज़्यादा अज़ीम हो और अल्लाह तआला को ज़्यादा पसंद हो, ज़िल हिज्जह के पेहले दस दिनों से, लिहाज़ा (उन दिनों में) तस्बीह, तहमीद, तहलील और तकबीर की कषरत करो.

(१२) अगर आप पर क़ुर्बानी वाजिब हो, तो क़ुर्बानी ज़रूर करें.

हज़रत आंयशा (रज़ि.) से रिवायत है के नबिए करीम सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया के “क़ुर्बानी के दिनों में अल्लाह तआला के नज़दीक ख़ून बहाने (यअनी क़ुर्बानी का जानवर ज़बह करने) से ज़्यादा कोई अमल पसंदीदा नहीं है. क़ुर्बानी का जानवर क़यामत के दिन अपने सिंगों, बालों और खुरों के साथ आएगा (ताकी मीज़ाने अमल पर वज़न किया जाए) क़ुर्बानी अल्लाह तआला के यहां पहोंचती है (यअनी मक़बूल होती है) इस से पेहले के उस का ख़ून ज़मीन पर गिर जाए, लिहाज़ा क़ुर्बानी ख़ुश दिली से किया करो.”

 


[१] صحيح البخاري، الرقم: ۹٦۹

[२] ويستحب صوم تسعة أيام من أول ذي الحجة كذا في السراج الوهاج (الفتاوى الهندية ۱/۲٠۱)

[३] سنن الترمذي، الرقم: ۷۵۸، وقال: هذا حديث غريب

[४] سنن النسائي، الرقم: ۲٤۱٦، صحيح ابن حبان، الرقم: ٦٤۲۲

[५] تاريخ ابن عساكر ٤۳/۹۳، وقد ذكره المنذري في الترغيب والترهيب، الرقم: ۱٦۵٦، بلفظة “عن”، إشارة إلى كونه صحيحا أو حسنا أو ما قاربهما عنده كما بين أصله في مقدمة كتابه ۱/۵٠

[६] وأما صوم يوم عرفة ففي حق غير الحاج مستحب لكثرة الأحاديث الواردة بالندب إلى صومه ولأن له فضيلة على غيره من الأيام (بدائع الصنائع ۲/۷۹)

[७] صحيح ابن حبان، الرقم: ۳٦۳۱

[८] سنن الترمذي، الرقم: ۷۵٠، وقال: هذا حديث حسن

[९] مسند أحمد، الرقم: ۷٠۸٠، و قال العلامة الهيثمي رحمه الله في مجمع الزوائد، الرقم: ۵۵۵٠، رواه أحمد ورجاله موثقون

[१०] ومنها كثرة الدعاء بالمغفرة والعتق فإنه يرجى إجابة الدعاء فيه روى ابن أبي الدنيا بإسناده عن علي قال ليس في الأرض يوم إلا لله فيه عتقاء من النار وليس يوم أكثر فيه عتقا للرقاب من يوم عرفة فأكثر فيه أن تقول: اللهم أعتق رقبتي من النار وأوسع لي من الرزق الحلال واصرف عني فسقة الجن والإنس فإنه عامة دعائي اليوم (لطائف المعارف صـ ۲۸٤)

[११] شعب الإيمان، الرقم: ۳۷۸٠، وقال: هذا متن غريب وليس في إسناده من ينسب إلى الوضع والله أعلم

[१२] قال في شرح المنية وفي المضمرات عن ابن المبارك في تقليم الأظفار وحلق الرأس في العشر أي عشر ذي الحجة قال لا تؤخر السنة وقد ورد ذلك ولا يجب التأخير اهـ ومما ورد في صحيح مسلم قال رسول الله صلى الله عليه وسلم إذا دخل العشر وأراد بعضكم أن يضحي فلا يأخذن شعرا ولا يقلمن ظفرا فهذا محمول على الندب دون الوجوب بالإجماع فظهر قوله ولا يجب التأخير إلا أن نفي الوجوب لا ينافي الاستحباب فيكون مستحبا إلا إن استلزم الزيادة على وقت إباحة التأخير ونهايته ما دون الأربعين فلا يباح فوقها (رد المحتار ۲\۱۸۱)

[१३] صحيح مسلم، الرقم: ۱۹۷۷

[१४] (وقالا بوجوبه فور كل فرض مطلقا) ولو منفردا أو مسافرا أو امرأة لأنه تبع للمكتوبة (إلى) عصر اليوم الخامس (آخر أيام التشريق وعليه الاعتماد) والعمل والفتوى في عامة الأمصار وكافة الأعصار ولا بأس به عقب العيد لأن المسلمين توارثوه فوجب اتباعهم وعليه البلخيون ولا يمنع العامة من التكبير في الأسواق في الأيام العشر وبه نأخذ بحر ومجتبى وغيره (الدر المختار ۲/۱۸٠)

ابتداء وانتهاء التكبير وتكبير التشريق أوله بعد فجر يوم عرفة وآخره بعد عصر يوم النحر (تحفة الملوك صــ ۹۵)

والمرأة تخافت بالتكبير لأن صوتها عورة (تبيين الحقائق ۱/۲۲۷)

[१५] كتاب الآثار للإمام محمد، الرقم: ۲٠۸

[१६] المعجم الكبير للطبراني، الرقم: ۱۱۱۱٦، وقال العلامة الهيثمي رحمه الله في مجمع الزوائد، الرقم: ۵۹۳۲: قلت: هو في الصحيح باختصار التسبيح وغيره رواه الطبراني في الكبير ورجاله رجال الصحيح

[१७] والأضحية واجبة في قول أبي حنيفة وأصحابه على الموسر المقيم في المصر وعلى غيره ليست بواجبة (النتف ۱/۲۳۹)

[१८] سنن الترمذي، الرقم: ۱٤۹۳، وقال: حديث حسن غريب لا نعرفه من حديث هشام بن عروة إلا من هذا الوجه

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