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आमदनी के लिहाज़ से ख़र्च करना

जितनी चादर हो उतना ही पांव फैलाना चाहिए, पेहले देख लो के हमारे पास कितना है और किस क़दर गुंजाईश है उसी के अंदर ख़र्च करो, तो फिर इन्शा अल्लाह माली परेशानी न उठानी पड़ेगी...

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उम्मत का दुरूद नबी (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) को पहोंचना

अपने घरों को क़ब्रस्तान न बनावो (घरों को नेक आमालः नमाज़, तिलावत और ज़िक्र वग़ैरह से आबाद रखो. उन को क़ब्रस्तान की तरह मत बनावो जहां नेक आमाल नही होते हैं) और मेरी क़बर को जशन की जगह मत बनावो और मुझ पर दुरूद भेजो, क्युंकि तुम्हारा दुरूद मेरे पास (फ़रिश्तों के ज़रीए) पहोंचता है, चाहे तुम जहां कहीं भी हो...

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मोहब्बत का बग़ीचा (सतरहवां प्रकरण)‎

जो व्यक्ति अल्लाह तआला की विशेष रहमत का तालिब है उसे चाहिए के वह पांच वक़्त की नमाज़ें जमाअत के साथ पाबंदी के साथ मस्जिद में अदा करे, तमाम गुनाहों से बचना और मख़लुक के साथ शफ़क़त तथा हमदरदी के साथ पेश आए और उन के अधिकार अदा करे...

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मुसलमानों के धार्मिक पतन पर सहानुभूति और चिंता व्यक्त करते हुए

दुनिया के नुक़सान को नुक़सान समझा जाता है लेकिन दीन के नुक़सान को नुक़सान नहीं समझा जाता, फिर हम पर आसमान वाला क्युं रहम करे, जब हमें मुसलमानों की दीनी हालत के अबतर होने पर रहम नहीं...

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