रात की बारी और शफ़क़तो दिलदारी में बराबरी
(१) शौहर पर वाजिब है के वह अपनी बीवियों के दरमियान रात की बारी में बराबरी करे. बराबरी का क्या तरीक़ा होगा? इस सिलसिले में शरीअतनें बराबरी के तरीके़ को शौहर की तजवीज़ और विवेक (सवाबदीदगी) पर छोड़ दिया है. लेकिन शौहर इस बात का ज़रूर ख़्याल रखे के वह रातों की तादाद (संख्या) में बीवीयों के दरमियान बराबरी करे. [१]
मिषाल के तौर पर अगर शौहर एक बीवी के साथ तीन रात गुज़ारे तो उस को चाहिये के वह दूसरी बीवी के साथ भी तीन रात गुज़ारे. अगर उस की ख़्वाहिश है के एक बीवी के पास दो रात गुज़ारे, तो उस पर ज़रूरी होगा के दूसरी बीवी के पास भी दो रात गुज़ारे.
(२) रात ग़ुरूबे शम्स से शुरू होती है और सुबह सादिक़ पर ख़तम होती है. जहां तक दिन के अवक़ात की बात है, तो बेहतर यह है के शौहर दिन के अवक़ात भी अपनी बीवीयों के दरमियान बराबरी के साथ गुज़ारे (अगरचे उस में बराबरी वाजिब नहीं है). [२]
(३) शौहर पर वाजिब है के वह अपनी सारी बीवीयों के वैवाहिक अधिकार (इज़दिवाजी हुक़ूक़) की तकमील करे. जितनी रात वह एक बीवी के पास गुज़ारे उतनी रात वह दूसरी बीवी के पास भी गुज़ारे, अलबत्ता शौहर पर यह ज़रूरी नहीं है के वह अपनी बीवियों के दरमियान हमबिस्तरी (संभोग) की संख्या में बराबरी करे. [३]
(४) अगर एक बीवी अपनी रात की बारी छोड़ दे और शौहर को इजाज़त दे के वह उस की रातें दूसरी बीवी के साथ गुज़ारे तो यह जाईज़ है, लेकिन अगर वह दोबारा अपना हक़ (बारी) वापस लेना चाहे, तो शरीअत की तरफ़ से उस को इजाज़त है के वह अपनी बारी वापस ले ले. [४]
(५) शौहर को चाहिए के वह अपनी तमाम बीवियों के दरमियान शफ़क़त तथा हमदरदी में बराबरी करे. अलबत्ता अगर वह प्राकृतिक तौर पर एक बीवी की तफ़ ज़्यादहा माईल हो और उस के दिल में उस के लिए ज़्यादा मोहब्बत हो, तो उस पर उस की पकड़ नहीं होगी और वह गुनेहगार नहीं होगा. क्युंकि अन्दरूनी जज़बात इन्सान की बस और क़ुदरत से बाहर हैं. लेकिन शौहर पर यह ज़रूरी है के वह तमाम बीवियों के साथ शफ़क़तो दिलदारी में अपना व्यवहार बराबर रखे. अगर वह किसी के साथ ज़्यादा हमदर्दी और दिलदारी के साथ पेश आएगा, तो वह गुनहगार होगा.
(६) शौहर पर वाजिब नहीं है के वह अपनी बीवियों के दरमियान बराबरी करे, उस की वजह यह है के सफ़र के हालात हज़र के हालात से मुख़तलिफ़ होते हैं और सफ़र में वह आसानियां हासिल नही होती हैं जो घर में मुयस्सर होती है. लिहाज़ा शरीअत ने शौहर को इजाज़त दी है के जिस बीवी के साथ उस को ज़्यादा मुनासबत और उन्स हो अगर वह सिर्फ़ उसी के साथ सफ़र करना चाहे तो उस के साथ सफ़र करे.
यह बात स्पष्ट रहे के सफ़र में जितना वक़्त उपयोग होगा शौहर पर वाजिब नहीं है के वह उस का हिसाब लगावे और दूसरी बीवी के साथ उतना वक़्त गुज़ार दे. यअनी उस को बारी में शुमार नहीं किया जायेगा और सफ़र से वापसी के बाद शौहर के ज़िम्मे वाजिब नहीं होगा के जितनी रातें उस ने एक बीवी के साथ सफ़र में गुज़ारी है उतनी रातें वह दूसरी बीवियों के साथ भी गुज़ारे. अलबत्ता अगर शौहर सफ़र के लिए कोई एसा तरीक़ा इख़्तियार करे, जिस से उस की तमाम बीवियां ख़ुश हो जाए, तो यह बेहतर होगा. मिषाल के तौर पर बीवियों के दरमियान क़ुर्आ अन्दाज़ी करे और जिस बीवि का नाम क़ुर्आ में निकले उस के साथ सफ़र करे या हर बीवी के लिए अपने साथ सफ़र के लिए बारी मुक़र्रर कर दे, ताकि हर बीवी को उस के साथ सफ़र का मौक़ा मिल सके. [५]
[१] إذا كان للرجل الحر أو المملوك امرأتان حرتان فإنه يكون عند كل واحدة منهما يوما وليلة وإن شاء أن يجعل لكل واحدة منهما ثلاثة أيام فعل لأن المستحق عليه التسوية فأما في مقدار الدور فالاختيار إليه وهذه التسوية في البيتوتة عندها للصحبة والمؤانسة لا في المجامعة لأن ذلك ينبني على النشاط ولا يقدر على اعتبار المساواة فيه (المبسوط للسرخسي ۵/۲۱۷)
[२] (ويقيم عند كل واحدة منهن يوما وليلة) لكن إنما تلزمه التسوية في الليل حتى لو جاء للأولى بعد الغروب وللثانية بعد العشاء فقد ترك القسم
قال العلامة ابن عابدين – رحمه الله -: (قوله لكن إلخ) قال في الفتح: لا نعلم خلافا في أن العدل الواجب في البيتوتة والتأنيس في اليوم والليلة، وليس المراد أن يضبط زمان النهار، فبقدر ما عاشر فيه إحداهما يعاشر الأخرى بل ذلك في البيتوتة وأما النهار ففي الجملة اهـ يعني لو مكث عند واحدة أكثر النهار كفاه أن يمكث عند الثانية ولو أقل منه بخلافه في الليل نهر (رد المحتار ۳/۲٠۷)
[३](قوله والصحبة) كان المناسب ذكره عقب قوله في البيتوتة لأن الصحبة أي المعاشرة والمؤانسة ثمرة البيتوتة. ففي الخانية: ومما يجب على الأزواج للنساء العدل والتسوية بينهن فيما يملكه والبيتوتة عندهما للصحبة والمؤانسة لا فيما لا يملكه وهو الحب والجماع (رد المحتار ۳/۲٠۲)
[४] (قوله ولها أن ترجع إذا وهبت قسمها لأخرى) فأفاد جواز الهبة والرجوع أما الأول فلأن سودة بنت زمعة وهبت يومها لعائشة رضي الله عنها وأما صحة الرجوع في المستقبل فلأنها أسقطت حقا لم يجب بعد فلا يسقط (البحر الرائق ۳/۲۳٦)
[५] (ولا حق لهن في القسم حالة السفر فيسافر الزوج بمن شاء منهن والأولى أن يقرع بينهن فيسافر بمن خرجت قرعتها) وقال الشافعي رحمه الله القرعة مستحقة لما روي أن النبي عليه الصلاة والسلام كان إذا أراد سفرا أقرع بين نسائه إلا أنا نقول إن القرعة لتطييب قلوبهن فيكون من باب الاستحباب وهذا لأنه لا حق للمرأة عند مسافرة الزوج ألا يرى أن له أن لا يستصحب واحدة منهن فكذا له أن يسافر بواحدة منهن ولا يحتسب عليه بتلك المدة (الهداية ۱/۲۱٦)