फज़ाइले-सदकात – १८

सातवीं फ़स्ल

किस्सा =२=

हज़रत इमाम हसन रज़ियल्लाह अन्हु

हज़रत इमाम हसन रज़ि की खिदमत में एक शख़्स हाज़िर हुए और अपनी हाजत पेश करके कुछ मदद चाही और सवाल किया।

आपने फ़रमाया: तेरे सवाल की वजह से जो मुझ पर हक कायम हो गया है, वह मेरी निगाह में बहुत ऊँचा है, और तेरी जो मदद मुझे करना चाहिए वह मेरे नज़दीक बहुत ज़्यादा मिक्दार है, और मेरी माली हालत उस मिक्दार के पेश करने से आजिज़ है जो तेरी शान के मुनासिब हो, और अल्लाह के रास्ते में आदमी जितना भी ज़्यादा से ज़्यादा खर्च करे वह कम ही है, लेकिन मैं क्या करूं? मेरे पास इतनी मिक्दार नहीं है जो तेरे सवाल के शुक्र के मुनासिब हो।

अगर तू इसके लिए तैयार हो जो मेरे पास मौजूद है, उसको तू ख़ुशी से कुबूल कर ले और मुझे इस पर मजबूर न करे कि मैं उस मिक्दार को कहीं से हासिल करूं जो तेरे मर्तबा के मुनासिब हो और तेरा जो हक मुझ पर वाजिब हो गया है, उसको पूरा कर सके, तो मैं ब-खुशी हाज़िर हूँ।

उस साइल ने कहा: ऐ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम के बेटे, मैं जो कुछ आप देंगे, उसी को क़बूल कर लूँगा और उस पर शुक्र गुज़ार हूँगा और उससे ज़्यादा न करने में आपको माज़ूर समझूँगा।

इस पर हज़रत हसन रजि० ने अपने ख़ज़ांची से फ़रमाया कि उन तीन लाख दिरहमों में से (जो तुम्हारे पास रखवाये थे) जो बचे हों, ले आओ। वह पचास हज़ार दिरहम लाये (कि इसके अलावा वे सब खर्च कर चुके थे)।

हज़रत हसन रज़ि ने फ़रमाया कि पांच सौ दीनार (अशर्फियां) और भी तो कहीं थे, ख़ज़ांची ने अर्ज़ किया कि वे भी मौजूद हैं। आपने फरमाया कि वे भी ले आओ।

जब यह सब कुछ आ गया तो उस साइल से कहा कि कोई मज़दूर ले आओ, जो इनको तुम्हारे घर तक पहुँचा दे।

वह दो मज़दूर लेकर आये, हज़रत हसन रज़ि ने वह सब कुछ उनके हवाले कर दिया और अपने बदने मुबारक से चादर उतार कर मरह़मत फरमाई कि इन मज़दूरों की मज़दूरी भी तुम्हारे घर तक पहुँचाने की मेरे ही ज़िम्मे है, लिहाज़ा यह चादर फरोख्त करके इनकी मज़दूरी में दे देना।

हज़रत हसन रज़ि के गुलामों ने अर्ज़ किया कि हमारे पास तो अब खाने के लिए एक दिरम भी बाकी नहीं रहा, आपने सब का सब ही दे दिया।

हज़रत हसन रज़ि ने फरमाया कि मुझे अल्लाह तआला शानुहू की ज़ात से इसकी क़वी उम्मीद है कि वह अपने फ़ज़्ल से मुझे इसका बहुत सवाब देगा। (एह्या)

सब कुछ दे देने के बाद जब कि अपने पास कुछ भी न रहा और मिक्दार भी इतनी ज़्यादा थी, फिर भी इसका कलक और इसकी नदामत थी कि साइल का हक अदा न हो सका।

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