शेखुल-इस्लाम हजरत मौलाना हुसैन अहमद मदनी रह़िमहुल्लाह
शेखुल-इस्लाम हज़रत मौलाना हुसैन अहमद मदनी रह़िमहुल्लाह एक सैय्यद थे, यानी आप अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम के खानदान में से थे और जलीलुल-क़द्र आलिमे-दीन थे। आप १२९६ हिजरी (सन ईस्वी १८७९) में पैदा हुए और ८१ साल की उम्र में १३७७ हिजरी (सन ईस्वी १९५७) में इन्तिक़ाल कर गए।
आप दारुल-‘उलूम देवबंद के फ़ाज़िल थे और आप को ३२ साल तक दारुल-उलूम देवबंद में पढ़ाने का सौभाग्य भी हासिल हुआ। इस दौरान आपके हाथ लगभग ३८५६ तलबा-ए-किराम ने (विद्यार्थियों ने) तालीम हासिल की।
अल्लाह तआला ने आप को ऐसी कबूलियत अता फरमाई थी कि आज अगर कोई शख्स दुनिया के तकरीबन किसी भी मुल्क का सफर करे, तो उसे वहां ऐसे आलिम मिलेंगे, जिनकी सनदे-हदीस डाइरेक्टली या इनडाइरेक्टली हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह तक पहुंचती हैं।
अल्लाह तआला ने हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह को बहुत सी तारीफ के काबिल और मिसाली ख़ूबीयों से नवाज़ा था। उनमें से, आपकी एक नुमायां सिफत यह थी कि आप ज़िन्दगी के तमाम शोबो में (क्षेत्रों में) एहतिमाम और पाबंदी के साथ सुन्नत पर अमल करते थे।
नीचे कुछ घटनाओं का उल्लेख किया जा रहा है, जिस से सुन्नते-नबवी से आप की गहरी मुहब्बत जाहिर होती है:
नमाज़ में सुन्नत किराअत
हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह नमाज़ में मसनून सूरतों की तिलावत का खास तौर पर एहतिमाम फ़रमाते थे; इसलिए, वह फ़ज्र की नमाज़ में तिवाले-मुफस्सल (सूरह हुजुरात से सूरह बुरूज् तक की सूरतें) सूरतों की तिलावत को बहुत ज्यादह अहमियत देते थे, इसी तरह, वह ईशा की नमाज़ में अव्साते-मुफस्सल (सूरह बुरूज से सूरह बय्यिनह तक) और मगरिब की नमाज़ में क़िसारे-मुफस्सल (सूरह बय्यिनह से सूरह नास तक) सूरतों की तिलावत का बहुत ज्यादह एहतिमाम फरमाते थे।
हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह मसनून किराअत पढ़ने पर इतना ज्यादा एहतिमाम था कि अगर आप किसी मस्जिद में नमाज़ पढ़ते और उस मस्जिद के इमाम ने अगर मुसनून किराअत न पढ़ी, तो आप नमाज़ के बाद उनके पास जाते और उन्हें मसनून किराअत पढ़ने की तर्गीब देते।
दूसरों को आराम पहुंचाना
एक मौके पर हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह ट्रेन से सफर कर रहे थे। अल्लाह का करना कि, ट्रेन के उसी डिब्बे में हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह के साथ एक हिंदू बैठा हुआ था.
सफर के दौरान हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह ने देखा कि वह हिंदू खड़ा हुआ, उस डिब्बे से निकला और फिर वापस आया। उस हिंदू ने चंद बार ऐसा किया और ऐसा लग रहा था कि वह बेचैन था।
हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह ने उससे पूछा कि क्या बात है? क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ? उस हिंदू ने जवाब दिया: मुझे बैतुल-खला (शौचालय) इस्तेमाल करने की ज़रूरत है, लेकिन बैतुल-खला बहुत गंदा है, इसलिए मुझे उसका उपयोग करने में परेशानी हो रही है।
यह सुनकर हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह कुछ देर बैठे रहे और कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर बाद हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह खिड़की के पास जाकर खड़े हो गये, फिर आप धीरे-धीरे बैतुल-खला के पास पहुंचे, उसमें दाखिल हुए और दरवाजा बंद कर दिया। दरवाजा बंद करने के बाद खुद ही टॉयलेट साफ किया।
उसके बाद आप बाहर आए और उस हिंदू से कहा: मैं अभी बैतुल-खला (टॉयलेट) से आया हूं और अब वह बिल्कुल साफ है।
इस तरह, हज़रत मदनी रह़िमहुल्लाह ने उस हिंदू को आराम पहुंचाया और उसके सामने यह ज़ाहिर भी नहीं किया कि आपने खुद बैतुल-खला साफ किया है।
मुसलमान भाई की फिक्र
हिन्दुस्तान के स्टेट यूपी में एक आलिम थे। वह आलिम हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह के शागिर्द और मुरीद थे और उनका हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह से बड़ा गहरा संबंध था।
एक बार वह आलिम सख्त बीमार हुए। उनकी हालत इतनी खराब हो गई थी कि उनके घरवालों को यकीन हो गया था कि वे किसी भी वक्त इन्तिक़ाल कर सकते हैं।
इस हालत में उनके बच्चों ने हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह को खत लिखा कि हजरत! हम आपको कुछ ऐसी चीज़ के बारे में सूचित (ख़बरदार) करने के लिए लिख रहे हैं, जो हमारे लिए बहुत ही बेचैनी को बढ़ाने वाला और परेशान-कुन है।
हमारे वालिद साहिब (पिताजी) बहुत बीमार हैं और लगता है कि मौत के करीब हैं; मगर जो चीज़ हमें परेशान कर रही है, वह यह है कि ज़िन्दगी के बिल्कुल आखिरी घड़ी में उन का बर्ताव अजीबो-गरीब है।
हम जब भी उनके पास जाते हैं तो वह सिर्फ दौलत की ही बात करते हैं. वह हमसे पूछते हैं कि फलां-फलां जायदाद का क्या हुआ? उससे कितनी आमदनी आ रही है? फलां-फलां को इतनी रकम उधार दी थी, क्या उसने रकम वापस कर दी है?
हम उनकी इन बातों से बहुत परेशान हैं कि वह अपने जिंदगी के आखिरी लम्हात में हैं और उनका दिलो-दिमाग सिर्फ दुनिया में मशगूल है।
खत पढ़कर हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह बहुत ज्यादह फिक्रमंद हो गए; चुनांचे जैसे ही दर्स (सबक) से फारिग हुए, आप दर्सगाह से निकले और फौरन रेलवे स्टेशन की ओर चल दिए। यह देखकर कि हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह कहीं तशरीफ ले जा रहे हैं, चंद तलबा और उस्ताद जिनकी तादाद तकरीबन दस थी, हज़रत के साथ हो गए।
जब हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह उस आलिम के घर पहुंचे, तो उनसे कोई गुफ्तगू नहीं फरमाई, कोई तंबीह नहीं फरमाई, ज़ुहद के टॉपिक पर कोई बयान नहीं फरमाया, न ही कोई हदीस सुनाई; बल्कि घर में दाखिल होने के बाद हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह ने उनसे सिर्फ खैरियत पूछी और फिर थोडी देर सिर झुकाये बैठे रहे।
उस दौरान वहां जितने हाज़िर थे, वो सुन सकते थे कि उस घर की छत, दीवार, दरवाज़े, खिड़कियां हर चीज़ से ज़िक्रे-अल्लाह की आवाज आ रही थी. यह करामत थी, जिसे अल्लाह तआला ने हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह के हाथ पर जाहिर फ़रमाया। उसके बाद हज़रत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह वापस तशरीफ ले गए।
चंद दिनों बाद उस आलिम के बेटे ने हजरत मौलाना मदनी रह़िमहुल्लाह को एक और ख़त लिखा, जिसमें उन्होंने लिखा कि हजरत! आपके आने के बाद से हमारे वालिद साहिब (पिताजी) की हालत बदल गई है. हर वक़्त उनका दिलो-दिमाग ज़िक्रे-अल्लाह में मशगूल है और अल्लाह तआला की तरफ मुतवज्जह रहता है।
(मुतवज्जह= ध्यान देने वाला, माइल)