नेक,सालेह आलिम से मशवरा करने की अहमियत
“हर फन में उसके माहिर लोगों से मशवरा तलब करना” एक उसूल और ज़ाब्ता है, जो आम तौर पर बयान किया जाता है और जिंदगी के तमाम मरहलों में उस पर अमल किया जाता है।
मिसाल के लिए, सोचें कि एक शख़्स अपने सपनों का घर बनाना चाहता हैं, तो वो अपने इस इरादे को अंजाम तक पहुंचाने के लिए कोन कोन से स्टेप लेगा?
सबसे पहले वो नक्शा बनाने के लिए किसी माहिर आर्किटेक्चर से संपर्क करेगा, फिर वो मकान बनाने के लिए इन्जीनियर और थेकेदार की खिदमत लेगा।
ज़रा तसव्वुर करें कि अगर वो आर्किटेक्चर, इन्जीनियर और थेकेदार की मदद के बगैर अपना मकान खुद बनाना शुरू कर दे, तो उसका अंजाम क्या होगा? हम अच्छी तरह अंदाज़ा लगा सकते है कि वो अपने लिए और दूसरों के लिए किसकदर मुश्किलें खदी करेगा।
सही रहनुमाई और मार्गदर्शन, तजुर्बा और महारत के बगैर इस बात की बहुत ही ज्यादह संभावना है कि इस मकान का पूरा ढांचा मुनहदिम हो जाए और उस की जिंदगी और दूसरों की जिंदगी खतरे में पड जाए।
इसी तरह जब सेहत से मुताल्लिक कोई परेशानी सामने आ जाए, तो होशियार और माहिर डाक्टरों की राई ली जाती है, उसी तरह तिजारत के हिसाब-किताब में अकाउंटंट से मशवरा किया जाता है और जब कोई कानूनी कार्रवाई करनी होती है तो वकील साहब से राबता किया जाता है।
खुलासा यह है कि कदम-कदम पर जिंदगी में लोगो की आदत यह है कि वो इस उसूल और ज़ाब्ते पर अमल करते हैं और वो उन लोगों से मदद और रहनुमाई हासिल करते हैं, जिनको वो अपने-अपने संबंधित कामो में माहिर, होशियार और तजुर्बा-कार मानते हैं।
जिस तरह इस उसूल और ज़ाब्ता पर अमल करना इन्सान के लिए जिंदगी के तमाम फील्ड और शोबो में जरूरी है, उसी तरह इस उसूल और ज़ाब्ते पर अमल करना निहायत ज़रूरी है।
इस्लाम की तालीम यह है कि जब हमें किसी दीनी रहनुमाई हासिल
करने की ज़रूरत हो (दीनी रहनुमाई दीनी मामले में भी और दुनियावी मामले में भी) तो हमें चाहिए कि हम दीन के बुजुर्गों और नेक, सालेह आलिमों के पास जायें।
पैगम्बर सल्लल्लाहु अलैही व-सल्लम ने अपनी उम्मत को यही तालीम दी है कि किसी भी मामले में फैसला करने से पहले नेक-सालेह आलिम से मशवरा करें।
इसकी वजह यह है कि आलिमों के पास दिन का इल्म है; इसलिए, वे हमें सही दीनी मशवरा दे सकते हैं और वे हमें सही रास्ता दिखा सकते हैं, नीज़ जब कोई उनसे मशवरा करेगा, तो उसे अपने मामले में शरीयत का सही हुक्म और मसअला मालूम होगा, फिर वह अपने मामले में सही फैसला और निर्णय कर सकेगा और अल्लाह तआला को राज़ी कर सकेगा; इसलिए किसी भी मामले और मसअले में दीन का इल्म (नॉलेज) हासिल किए बगैर फैसला करना अँधेरे में आँख बंद करके तीर चलाने जैसा है।
शादी-विवाह के मामले में भी इस्लाम सिखाता है कि इन्सान अपने बड़ों से मशवरा करे और उनसे रहनुमाई (मार्गदर्शन) हासिल करे।
खास कर कि लड़की के मामले में, इस्लाम इस बात पर ज़ोर देता है कि वह नेक शौहर चुनने में अपने वालिदैन (माता-पिता) और परिवार के बड़ों से रहनुमाई हासिल करे। लड़की के लिए खुद जीवनसाथी ढूंढ़ना और खुद निकाह करना बेहद निंदनीय और बेशर्मी, बेहयाई की बात है.
इसलिए, हदीस-शरीफ में आया है कि अगर कोई लड़की अपने वली (वडील, मां-बाप वग़ैरह) के बगैर खुद अपना निकाह करे, तो ऐसा निकाह बरकत और भलाई से खाली होगा।
हदीस-शरीफ में लड़की को अपने वालिदैन (माता-पिता) या बड़ों के सामने अपने मामले को पेश करने का हुक्म इस कारण से दिया गया है कि आमतौर पर नेक वालिदैन अपनी औलाद के मुक़ाबले में ज़्यादा इल्म (ज्ञान), समझ और अनुभव रखते हैं; क्योंकि वे इन चीज़ो से गुज़र चुके हैं और ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव को देख चुके हैं; जिससे वे अपने बच्चों की सही रहनुमाई (मार्गदर्शन) कर सकते हैं।
साथ ही, लड़की की सुरक्षा और सलामती इस में है कि अपने मां-बाप के नॉलेज और अनुभव से फ़ायदा उठाए, बजाए इस के कि खुद अपने लिए लाइफ़-पार्टनर (शौहर) तलाश करे।
ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां औरतों ने खुद को कई परेशानियों और मुसीबतों में डाल दिया; क्योंकि उन्होंने अपना शौहर खुद चुना और अपने माता-पिता और बड़ों से ना ही सलाह ली और ना ही मशवरा किया।
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि दीन के बुजुर्गों और नक-सालेह आलिमों की ओर रुख करना सिर्फ दीन (धर्म) और दुनिया में हिफाज़त हासिल करने का ज़रिया (साधन) नहीं है; बल्कि यह ज़िन्दगी में बरकत, खैर-ओ-भलाई, खुश-नसीबी, खुशहाली और सफलता हासिल करने की कुंजी (चाबी) भी है।
इसलिए हदीस-शरीफ में आया है कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम ने फ़रमाया: बरकत तुम्हारे बुजुर्गों (बडो) के पास है।
एक और हदीस-शरीफ में है कि नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम ने फ़रमाया: मशवरा करने वाला (परामर्श करने वाला) पछताएगा नहीं और शर्मिंदा नहीं होगा।
नीचे एक सबक लेने के काबिल वाकिआ आ रहा है, जिससे इस बात का बड़ा महत्व (अहमियत) पता चलता है कि हमें कोई भी निर्णय लेने से पहले अपने बड़ों और नेक-सालेह आलिमों से मशवरा करना चाहिए और उन की कही हुई बात को मानना चाहिए।
शेख अली तंतावी रहिमहुल्लाह की पोती का वाकिआ
शेख अली तंतावी रहिमहुल्लाह (अल्लाह उन पर रहम फरमाए) सीरिया देश के एक आलिम थे।
उनकी पोती बताती है कि उनकी जिंदगी में एक वक्त ऐसा आया कि उन्होंने और उनके परिवार के सब लोगो ने कनाडा चले जाने का इरादा किया।
जब उनके दादा, शेख अली तंतावी रहिमहुल्लाह को पता चला, तो उन्होंने उन को मना कर दिया और उनसे कहा:
कुफ्र की सरजमीं में जिंदगी बसर करने का फैसला तुम्हारी औलाद को दीन से हाथ धोने का सबब बनेगा; क्योंकि यह बात मुमकिन है कि तुम अपनी औलाद के दीन की हिफाज़त कर सको; लेकिन आप अपने औलाद के औलाद के दीन की हिफाज़त और सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते; इसलिए उनके दीन के बर्बाद होने और तहस-नहस होने की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर मत लों।
शेख अली तंतावी रहिमहुल्लाह की पोती कहती हैं कि उस समय मुझे उनकी बातें मानने में हिचकिचाहट हो रही थी और मुझे लगता था कि वह (मेरे दादा) बहुत सख्त आदमी हैं और वह केवल अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहते हैं अपने बच्चों की जिंदगी पर।
हालाँकि, मैंने अपनी भावनाओं पर क़ाबू रखा और मैंने और मेरे खानदान के सदस्यों ने उनकी सलाह मानने और उनकी बात मानने का फैसला किया।
कुछ वर्षों के बाद, जब मैंने देखा कि कई लोगों के बच्चों ने और पोते-पोतियों ने गैर-मुस्लिम देशों में जाने के बाद इस्लाम छोड़ दिया (यानी वे मुर्तद हो गए), तो मुझे अपने दादा की नसीहत और रहनुमाई की कदर मालूम हुइ, फिर मैंने उनके लिए दुआ की कि अल्लाह तआला उन पर रहम फरमाए।
अब मैं उनकी राय से पूरी तरह सहमत हूं और जब भी मुझे ऐसे लोगों की कोई घटना मिलती है जिनके बच्चों ने अपना दीन खो दिया है, तो मुझे उनका होशियारी से भरा हुआ फैसला याद आता है।
उपरोक्त घटना से, हम यह बात अच्छी तरह से समझते हैं कि हदीस-शरीफ की शिक्षाओं का (तालीम का) पालन करना (यानी हमेशा नेक-सालेह आलिमों और दीन के बड़े-बुजूर्गो के पास अपना मेटर और मसअला ले जाना) बहुत ज़रूरी है; क्योंकि ऐसा करने से इन्सान दीन पर सही तरीके से चलेगा और अपने आप को तथा अपनी औलाद को इस दुनिया के और आख़िरत के नुकसान से बचाएगा।