दीन-ओ-ईमान की हिफाजत का तरीका

हज़रत मौलाना अशरफ़ अली थानवी रहिमहुल्लाह ने एक मर्तबा इरशाद फ़रमाया:

हातिम असम फ़रमाते हैं कि जब तक कुछ हिस्सा क़ुरान शरीफ़ का और कुछ हिस्सा अपने सिलसिले के मुर्शीद-ओ-बुजुर्ग के मल्फ़ूज़ात-ओ-हिकायत का न पढ़ा जाए, तब तक ईमान की सलामती नज़र नहीं आती।
(मुर्शीद=शेख, हिदायत वाला सीधा रास्ता बताने वाला)

हज़रत हमदानी रहिमहुल्लाह से लोगों ने पुछा कि जब मुर्शीद वफात पा जाए, तो फिर क्या क्या जाए; ताकि ईमान सलामत रहे।

फ़रमाया: उन का कलाम पढ़ा जाए, उन के उलूम को सुना जाए और सोचा जाए, इस लिए कि उनकी बातों और हिकायतों के सबब तुझे उन से निस्बत हासिल होगी और वो निस्बत तुम्हारे नजात का मूजिब (सबब) होगी। (हदीस शरीफ़ में है):

من تشبه بقوم فهو منهم

जिस ने दूसरी क़ौम से मुशाबहत की, वो उनमें से है।
(मुशाबहत करना= किसी के मिसल कोई काम करना, नक़ल करना)

नीज़ दीन के मशाईख-ओ-बुजुर्गो की हिकायत-ओ-मलफूजात पढ़ने सुनने का एक यह फायदा भी है, जब उनके अफ़’आल (आमाल, काम), अक़वाल (बातें), अह़वाल अपने अंदर न पाएगा, तो उसके दिल से गुरुर-ओ-तकब्बुर दूर हो जाएगा और उनकी पैरवी कर के उन्हीं में से होने की कोशिश करेगा और हो जाएगा।

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