हमारे बुज़ुर्गों का एक मक़ोला(बात) है, “जो हमारी इन्तीहा(अंत) को देखे वह नाकाम और जो इब्तिदा(शुरूआत) को देखे वह कामयाब”, इसलिए के इब्तिदाई जिंदगी (प्रारंभिक जीवन) मुजाहदों(कडा संघर्ष) में गुज़रती है और अख़ीर में फ़ुतुहात(सफ़लताओं) के दरवाज़े खुलते हैं...
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