
शेख़ुल हदीष हज़रत मौलाना मुहम्मद ज़करिय्या साहब (रह.) ने एक मर्तबा इरशाद फ़रमायाः
“बचपन में एक छंद सुना थाः
मुहब्बत तुझको मुहब्बत के आदाब खुद सिखा देगी
बचपन में वालिद साहब से अकषर छंद सुना करता था, उन को रट कर याद कर लेता था, उस वक़्त मतलब तो क्या समझ में आता, लेकिन याद ज़रूर कर लेता था. अब वह छंद याद आते है और पढ़ कर बहोत मज़ा आता है. अमल तो अब तक न हो सका. देखो ! यह मुहब्बत बड़ी ऊंची चीज़ है. यह सिद्धांत और नियम की पाबंद नहीं. अगर मुहब्बत करो तो दिल से महसूस हो. चाहे ज़बान से कुछ न कहें मगर दिल से जगा बनती चली जाए.
मौलवीओ ! तुम को मालूम है हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) बड़े ताजिर थे. उन्होंने अपना सब कुछ हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) और आप के ख़ादिमों पर ख़र्च कर दिया.” (मलफ़ूज़ात हज़रत शैख़(रह.), पेज नं-६५)
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