शैख़ुल हदीष हज़रत मौलाना मुहमंद ज़करिय्या (रह.) ने एक मर्तबा इरशाद फ़रमायाः
हमारे बुज़ुर्गों का एक मक़ोला(बात) है, “जो हमारी इन्तीहा(अंत) को देखे वह नाकाम और जो इब्तिदा(शुरूआत) को देखे वह कामयाब”, इसलिए के इब्तिदाई जिंदगी (प्रारंभिक जीवन) मुजाहदों(कडे संघर्ष) में गुज़रती है और अख़ीर में फ़ुतुहात(सफ़लताओं) के दरवाज़े खुलते हैं, अगर कोई उन फ़ुतुहात(सफ़लताओं) को देख कर आख़री जिंदगी को मेअयार बनाए(आदर्श बनाए) तो वह नाकाम हो जाएगा.
ऊपर वाले वाक्य को हज़रत(रह.) ने बार बार दोहराया, और इरशाद फ़रमाया मेरे प्यारो ! इस पर ग़ौर कर लो, और तमाम बुज़ुर्गों की ज़िंदगी में इस का मुताला(अध्ययन) कर लो. (सुहबते बा अवलिया, मलफ़ूज़ात शैख़ल हदीष हज़रत मौलाना मुहमंद ज़करिय्या(रह.), पेज नं-५५)
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