फज़ाइले-आमाल – ३४

शैतान का कौल है कि कलिमा-ए-तय्यिबा और इस्तिग़्फार ने मुझे हलाक कर दिया

عن أبي بكر الصديق رضي الله عنه عن رسول الله صلى الله عليه وسلم: عليكم بلا إله إلا الله والاستغفار فأكثروا منهما فإن إبليس قال: أهلكت الناس بالذنوب وأهلكوني بلا إله إلا الله والإستغفار فلما رأيت ذلك أهلكتهم بالأهواء وهم يحسبون أنهم مهتدون (أخرجه السيوطي في الجامع الصغير، الرقم: 8232)

हजरत अबूबक्र सिद्दीक़ रद़ियल्लाहु अन्हु हुजूरे-अक़्दस सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम से नक़ल करते हैं कि ला-इलाह इल्लल्लाह और इस्तिग़्फार को बहुत कसरत से पढ़ा करो। शैतान कहता है कि मैंने लोगों को गुनाहों से हलाक किया और उन्होंने मुझे ला-इलाह इल्लल्लाह और इस्तिग़्फार से हलाक कर दिया। जब मैंने देखा कि यह तो कुछ भी न हुआ, तो मैंने उन को हवा-ए-तफ़्स (यानी बिदअत से) हलाक किया और वे अपने को हिदायत पर समझते रहे।

फायदा: ‘ला-इलाह इल्लल्लाह’ और इस्तिग़्फार से हलाक करने का मतलब यह है कि शैतान का मुन्तहा-ए-मक्सद (आखिरी मकसद) दिल पर अपना ज़हर चढ़ाना है, जिसका ज़िक्र बाब-अव्वल, फ़स्ले-दोम के नंबर १४ पर गुज़र चुका और यह ज़हर जब ही चढ़ता है, जब दिल अल्लाह के ज़िक्र से खाली हो, वरना शैतान को ज़िल्लत के साथ दिल से वापस होना पड़ता है और अल्लाह का ज़िक्र दिलों की सफ़ाई का ज़रिया है।

चुनांचे मिश्कात में हुज़ूरे-अक़्दस सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम से नक़ल किया है कि हर चीज़ के लिये एक सफ़ाई होती है, दिलों की सफ़ाई अल्लाह का ज़िक्र है।

इसी तरह इस्तिग़्फार के बारे में कसरत से अहादीस में यह वारिद हुआ है कि वह दिलों के मैल और ज़ंग को दूर करने वाला है।

(ज़ंग = लोहे वग़ैरह पर लगने वाला मैल-कुचैल)

अबू-अली दक़्क़ाक़ रह़िमहुल्लाह कहते हैं कि जब बन्दा इख़्लास से ‘ला-इलाह’ कहता है, तो एकदम दिल साफ़ हो जाता है (जैसा आईने पर भीगा हुआ कपड़ा फेरा जाए)। फिर वह ‘इल्लल्लाह’ कहता है तो साफ़ दिल पर उसका नूर ज़ाहिर होता है। ऐसी सूरत में ज़ाहिर है कि शैतान की सारी ही कोशिश बेकार हो गयी और सारी मेहनत रायगां (बेकार) गयी।

हवा-ए-नफ़्स से हलाक करने का मतलब यह है कि ना-हक़ को हक समझने लगे और जो दिल में आ जाये, उसी को दीन और मज़हब बना ले। कुरआन-शरीफ़ में कई जगह इसकी मज़म्मत (बुराई,निंदा) वारिद हुई है।

एक जगह इर्शाद है:

أَفَرَأَيْتَ مَنِ اتَّخَذَ إِلَٰهَهُ هَوٰهُ وَأَضَلَّهُ اللَّهُ عَلَىٰ عِلْمٍ وَخَتَمَ عَلَىٰ سَمْعِهِ وَقَلْبِهِ وَجَعَلَ عَلَىٰ بَصَرِهِ غِشٰوَةً ۚ فَمَن يَهْدِيهِ مِن بَعْدِ اللَّهِ ۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ‎﴿٢٣﴾

क्या आपने उस शख्स की हालत भी देखी, जिसने अपना खुदा अपनी ख्वाहिशे-नफ़्स को बना रखा है और खुदा-ए-तआला ने उसको बावजूद समझ-बूझ के गुमराह कर दिया है और उसके कान और दिल पर मुहर लगा दी और आंख पर पर्दा डाल दिया (कि हक़ बात को न सुनता है। न देखता है, न दिल में उतरती है।) पस अल्लाह के गुमराह कर देने के बाद कौन हिदायत कर सकता है? फिर भी तुम नहीं समझते।

दूसरी जगह इर्शाद है-

وَمَنْ أَضَلُّ مِمَّنِ اتَّبَعَ هَوٰهُ بِغَيْرِ هُدًى مِّنَ اللَّهِ ۚ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِمِينَ ‎﴿٥٠﴾‏

ऐसे शख्स से ज़्यादा गुमराह कौन होगा, जो अपनी नफ्सानी ख्वाहिश पर चलता हो, बगैर इसके कि कोई दलील अल्लाह की तरफ़ से (उस के पास) हो। अल्लाह तआला ऐसे ज़ालिमों को हिदायत नहीं करता।’

और भी मुतअद्दिद (कई) जगह इस क़िस्म का मज़्मून (बात) वारिद हुआ है। यह शैतान का बहुत ही सख्त हमला है कि वह गैर दीन को दीन के लिबास में समझावे और आदमी उस को दीन समझ करता रहे और उस पर सवाब का उम्मीदवार बना रहे और जब वह उस को इबादत और दीन समझकर कर रहा है, तो उस से तौबा क्यूं कर सकता है?

अगर कोई शख्स ज़िनाकारी, चोरी वगैरह गुनाहों में मुब्तला हो तो किसी न किसी वक़्त तौबा और छोड़ देने की उम्मीद है, लेकिन जब किसी नाजायज़ काम को वह इबादत समझता है, तो उस से तौबा क्यूं करे और क्यूं उन को छोड़े, बल्कि दिन-ब-दिन उस में तरक़्क़ी करेगा।

यही मतलब है शैतान के इस कहने का मैंने गुनाहों में मुब्तला किया (डाला), लेकिन ज़िक्र-अज़्कार, तौबा, इस्तिग़्फार से वे मुझे दिक़ (परेशान) करते रहे, तो मैंने ऐसे जाल में फांस दिया कि उस से निकल ही नहीं सकते।

इस लिये दीन के हर काम में नबी-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम और सहाबा-ए-किराम रद़ियल्लाहु अन्हुम के तरीके को अपना रहबर बनाना बहुत ही ज़रूरी अम्र (बात) है। और किसी ऐसे तरीके को इख़्तियार करना, जो खिलाफ़े-सुन्नत (सुन्नत से हटा हुआ) हो, नेकी बर्बाद, गुनाह लाज़िम है।

इमाम ग़ज़ाली रह़्मतुल्लाहि अलैहि ने हसन बसरी रह़्मतुल्लाहि अलैहि से भी नक़ल किया है, वो फरमाते हैं, हमें यह रिवायत पहुंची है कि शैतान कहता है, मैंने उम्मते-मुह़म्मदिया के सामने गुनाहों को ज़ैब-ओ-ज़ीनत के साथ पेश किया, मगर उनके इस्तिग़्फार ने मेरी कमर तोड दी, तो मैंने ऐसे गुनाह उन के पास पेश किये जिन को वे गुनाह ही नहीं समझते कि उन से इस्तिग़्फार करें और वह अह्वा यानी बिदआत हैं कि वे उन को दीन समझ कर करते हैं।

वहब बिन-मुनब्बह रह़्मतुल्लाहि अलैहि कहते हैं कि अल्लाह से डर, तू शैतान को मज्मों (महफिलो) में लानत करता है और चुपके से उस की इताअत (फोलो) करता है और उस से दोस्ती करता है।

बाज़ सूफ़िया से मनक़ूल है कि किस कदर ताज्जुब की बात है कि हक़ तआला शानुहू जैसे मुह्सिन (एहसान करने वाला) के एह़्सानात मालूम होने के बाद, और उन के इक़रार के बाद उसकी नाफ़रमानी की जाए और शैतान की दुश्मनी के बावजूद, उस की अय्यारी और सरकशी मालूम होने के बावजूद उसकी इताअत की जाए (उसकी बात मानी जाए)।

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