क़र्ज़ लेने का एक उसूल

शैख़ुल हदीष हज़रत मौलाना मुहमंद ज़करिय्या (रह.) ने एक मर्तबा इरशाद फ़रमायाः

“क़र्ज़ की अदायगी वक़्त पर होना बहोत ज़रूरी और मुफ़ीद है. चुनांचे शुरू शरू में मुझ को अहबाब से क़र्ज़ क़ुयूद तथा शराइत के साथ मिला करता था, जब सब को इस बात का तजरबा हो गया के यह क़र्ज़ ले कर वक़्त पर ही अदा करता है, तो फिर देने वालों को पूरा संतोष हो गया, बिला तकल्लुफ़ मुझे क़र्ज़ मिलने लगा.

देखो हदीषे पाक में आया है के जिस का क़र्ज़ लेते वक़्त उस के अदा करने का पुख़्ता इरादा हो तो उस की अल्लाह की तरफ़ से इआनत (मदद) होती है और जो क़र्ज़ लेते वक़्त युं सोचे के देखी जाएगी तो फिर मामूली सा क़र्ज़ भी अदा नहीं हो पाता.” (मलफ़ूज़ात हज़रत शैख़ (रह.), पेज नं- २४)

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