بسم الله الرحمن الرحيم
इस्लाम में औरत का किरदार(भूमिका)
अल्लाह तआला ने दुनिया को सब से बेहतरीन शकल में पैदा किया है और उस का निज़ाम इतना मुसतहकम(मज़बूत) बनाया है के दुनिया का हर चीज़ मुकम्मल तथा व्यवस्थित अंदाज़ में अल्लाह तआला की इच्छा के अनुसार चल रही है. सूरज, चांद और रातो दिनकी गरदिश, आसमान से बारिशका नुज़ूल और मोसमों की तब्दीली यह सारी चीज़ें अल्लाह तआला की बेपनाह क़ुदरत की निशानियां हैं.
इस में कोई शक नही है के अल्लाह तआला ने हर मख़लुक़ को एक ख़ास मक़सद के लिए पैदा किया है अल्लाह तआला की मख़लूक़ में सब से अफ़ज़ल और बेहतर मख़लूक़ “इन्सान” है, जिस को अल्लाह तआलाने अपनी इबादत और अपने अहकाम की बजा आवरी(को पूरा करने) के लिए पैदा फ़रमाया है. और इस मक़सद की तकमील के लिए मर्दों और औरतों को कुछ मख़सूस ऊमूर का मुकल्लफ़ बनाया है और उन के कंधों पर कुछ ख़ास ज़िम्मेदारियां रखी हैं जो उन की तबीअत और मिज़ाज के बराबर है.
इस्लाम में औरत का किरदार (भूमिका) क्या है?
इस्लाम में औरत का किरदार(भूमिका) क्या है? इस्लामने औरत को तीन ऊमूर का पाबंद बनाया है, जो उस का किरदार है और उसी में उस की कामयाबी छुपी हुई है:
(१) अल्लाह तआला और उस के रसूल की इताअतो फ़रमां बरदारी करना.
(२) घर की चार दीवारी में सुकूनत(रेहना) और अजनबियों से परदा करना.
(३) शौहर के अधिकार(हुक़ूक़) की अदायगी करना और उस की फ़रमां बरदारी(बात मानना) करना.
हदीष शरीफ़ में आया है के नबीए करीम (सल्ललल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमाया “जो औरत पांच वक्त की नमाज़ पढेगी, रमज़ान का रोज़ा रखेगी, अपनी शर्मगाह की हिफ़ाज़त करेगी और अपने शौहर की इताअत करेगी, तो क़यामत के रोज़ उस से कहा जाएगा के तुम जन्नत के जिस दरवाज़े से दाख़िल होना चाहो, दाख़िल हो जावो.” (मजमउज ज़वाईद)
अल्लाह तआला की इताअत
हर औरत पर लाज़िम है के हर वक़्त अल्लाह तआला की इताअत और फ़रमां बरदारी में रहे और अल्लाह तआला की रज़ामंदी और ख़ुशनुदी को तमाम चीज़ों पर तरजीह दे, इसी तरह उस को इस बात का कामिल यक़ीन होना चाहिए के अल्लाह तआला ही उस के ख़ालिक़ तथा राज़िक़ हैं और वही उस को दुनिया और आख़िरत में कामयाबी और ख़ुशी अता करने वाले है. लिहाज़ा तमाम मामलात में उस को चाहिए के वह अल्लाह तआला के हुकम को सब से ऊपर रखे और हर उस अमल से बचे जिसे से अल्लाह तआला की नाफ़रमानी होती हो और जिस से अल्लाह तआला नाराज़ हो जाऐं, क्युंकि हदीष शरीफ़ में वारिद हैः
لا طاعة لمخلوق في معصية الخالق
अल्लाह तआला की नाफ़रमानी में मख़लूक़ की जर्रा बराबर इताअत नहीं करनी चाहिए. (मुसन्नफ़ इब्ने अबी शैयबा)
घर की चहार दीवारी में सुकूनत(रेहना) और अजनबियों से पर्दा
औरत का अल्लाह तआला के नज़दीक मक़बूलो महबूब बनने के लिए और दुनियावो आख़िरतमें कामयाब होने के लिए उस को चाहिए के वह अपने घर में रहे और ज़रूरत के बग़ैर वह घर से बाहर न निकले. क़र्आने करीम में अल्लाह तआला ने अज़वाजे मुतह्हरात और उम्मते मोहम्मदिया की औरतों को संबोधित करते हुए इरशाद फ़रमाया हैः
وَقَرْنَ فِى بُيُوْتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجْنَ تَبَرُّجَ الْجٰهِلِيَّةِ الْأُولٰى (سورة الأحزاب: ٣٣)
और अपने घरों में क़रार से रहो और ज़मानए जाहिलिय्यत की औरतों की तरह अपने आप को दिखाती मत फिरो.
और हमारे आक़ा (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का फ़रमान है के बेशक औरत को अजनबी लोगों की निगाहों से छुपा हुवा(मस्तूर) रेहना चाहिए. जब औरत अपने घर से निकलती है, तो शौतान उस को झांक कर देखता है. (मुस्नदे बज़्ज़ार)
इमाम शाफ़िई (रह.) फ़रमाते हैं के आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) के मुबारक ज़माने में आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की अज़वाजे मुतह्हरात, आप की साहबज़ादियां और आप की दीगर महरम ख़वातीन जुम्आ या जमाअत की नमाज़ में शिर्कत नही करती थीं. इस की वजह यह है के रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने औरतों को घरों में नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया.
सहाबियात (रज़ि.) की आदते शरीफ़ा थी के जब वह किसी ज़रूरत के बिना पर अपने घरों से निकलती थीं, तो अपने बदन को पूरे तौर पर ढ़ांप लेती थीं और मर्दों के साथ बिलकुल नहीं मिलती थीं. यहां तक के तवाफ़ में भी औरतों का मर्दों से इख़्तिलात(मिलाप) नहीं होता था. इमाम बुख़ारी (रह.) ने अपनी सहीह बुख़ारी में नक़ल किया है के जब औरतें तवाफ़ करती थीं तो औरतें किनारों पर चलती थीं और मर्दों से हरगिज़ नहीं मिलती थीं.
शौहर की इताअत(बात मानना) और उस के अधिकार की अदायगी
हज़रत अस्मा बिन्ते यज़ीद अन्सारिय्या नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुईं जबके आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) सहाबए किराम (रज़ि.) के साथ बैठे हुए थे. उन्होंने हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) को संबोधित कर के अर्ज़ किया के ए अल्लाह के रसूल ! हम औरतें घर की चहार दीवारी में रेहती हैं और अजनबियों की निगाहों से अपने आप की हिफ़ाज़त करती हैं, हम अपने शौहर की ख़्वाहिशात को पूरी करती हैं और उन के बच्चों को जनती हैं. मर्दों को हम पर यह फ़ज़ीलत दी गई है के वह जुम्आ और जमाअत में शरीक होते हैं, जबके हम अपने घरों में नमाज़ पढ़ती हैं. मर्द मरीज़ों की इयादत करते हैं, जनाज़े की नमाज़ पढ़ते हैं, हज को जाते हैं और सब से बढ़ कर यह के जिहाद करते हैं. जब मर्द हज्ज या उमरह के लिए जाते हैं या रिबात के लिए (इस्लामी सरहदों की हिफ़ाज़त के लिए) जाते हैं, तो उन तमाम सूरतों में हम घर में बैठ कर उन के माल की हिफ़ाज़त करती हैं, उन के कपड़ों को सिलती हैं, उन की औलाद को पालती हैं, तो ए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) क्या हमें अपने शौहरों के षवाब में से कोई हिस्सा मिलेगा या नहीं ?
रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम)को उन के सवाल से बे इन्तहा ख़ुशी हुई और उन से फ़रमाया के अगर औरत अपने शौहर को अच्छे अख़लाक़ बताए और शौहर की मरज़ी पर चलती है और जो नेक काम शौहर करता है उस को साथ देती है और उस की मदद करती है, तो मर्द को जिस क़दर षवाब मिलता है उसी क़दर षवाब उस की बीवी को भी मिलता है. (शोअबुल इमान)
इस वाक़िए से मालूम होता है के मुसलमान औरतों के लिए दीनी एतेबार से तरक़्क़ी और आख़िरत में बे पनाह अजर्रो षवाब की तहसील के बहोत से मोक़े हैः लेकिन उन्हें यह दौलत सिर्फ़ उसी सूरत में हासिल हो सकती है जब के वह अपने किरदार(भूमिका) को अदा करे जिन को अल्लाह तआला ने उस के लिए पसन्द किया है और वह अल्लाह तआला के फ़ैसले पर राज़ी रहें.
अल्लाह तआला हम सब को नेक अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए. आमीन
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