अज़ान और इक़ामत की सुन्नतें और आदाब-(भाग-१३)

अज़ान देने के समय निम्नलिखित सुन्नतों और आदाब का लिहाज़ रखा जाए

(१) अगर बहोत सी क़ज़ा नमाज़ें एक साथ अदा की जाऐं, तो हर नमाज़ के अलग अलग अज़ान देना जाईज़ है और अगर तमाम क़ज़ा नमाज़ों के लिए एक ही अज़ान दी जाए, तो भी काफ़ी है. यहांतक के हर नमाज़ के लिए इक़ामत अलग होनी चाहिए.[१]

عن أبي عبيدة بن عبد الله بن مسعود قال: قال عبد الله: إن المشركين شغلوا رسول الله صلى الله عليه وسلم عن أربع صلوات يوم الخندق حتى ذهب من الليل ما شاء الله فأمر بلالا فأذن ثم أقام فصلى الظهر ثم أقام فصلى العصر ثم أقام فصلى المغرب ثم أقام فصلى العشاء (سنن الترمذي رقم ۱۷۹)[२]

हज़रत अबू उबैदह(रह.)से रिवायत है के (मरेर वालिद) हज़रत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद(रज़ि.) ने बयान किया के ग़ज़वए ख़नदक़ में मुशरिकीन(के साथ क़िताल) की वजह से रसूलुल्लाह(सल्लल्लाहु अलयहि वससल्लम) की चार नमाज़ें क़ज़ा हो गयीं, यहां तक के रात का इतना हिस्सा गुज़र गया जितना अल्लाह तआला ने चाहा, चुनांचे आप(सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने हज़रत बिलाल(रज़ि.) को आदेश दिया, तो उन्होंने अज़ान दी फिर इक़ामत कही, पस आप(सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम)ने ज़ोहर की नमाज़ पढ़ी, फिर उन्होंने इक़ामत कही तो आप(सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने असर की नमाज़ पढ़ी, फिर उन्होंने इक़ामत कही तो आप(सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम)ने मग़रीब की नमाज़ अदा की, फिर उन्होंने इक़ामत कही, तो आप(सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम)ने इशा की नमाज़ अदा की.

नोटः- आप(सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की इशा की नमाज़ क़ज़ा नही हुई, लेकिन ताख़ीर के साथ अदाक की गई.

 

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[१] (و) يسن أن (يؤذن ويقيم لفائتة) رافعا صوته لو بجماعة أو صحراء لا ببيته منفردا (وكذا) يسنان (لأولى الفوائت) لا لفاسدة (ويخير فيه للباقي) لو في مجلس وفعله أولى، ويقيم للكل

قال الشامي : (قوله: وفعله أولى) لأنه اختلفت الروايات في قضائه صلى الله عليه وسلم ما فاته يوم الخندق، ففي بعضها أنه أمر بلالا فأذن وأقام للكل، وفي بعضها أنه اقتصر على الإقامة فيما بعد الأولى، فالأخذ بالزيادة أولى خصوصا في باب العبادات، وتمامه في الإمداد (قوله: ويقيم للكل) أي لا يخير في الإقامة للباقي، بل يكره تركها كما في نور الإيضاح. (رد المحتار ۱/۳۹٠-۳۹۱)

[२] قال أبو عيسى: وفي الباب عن أبي سعيد وجابر حديث عبد الله ليس بإسناده بأس إلا أن أبا عبيدة لم يسمع من عبد الله

قال الحافظ في الفتح (۲/۸۲) : وفي قوله أربع تجوز لأن العشاء لم تكن فاتت

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