फज़ाइले-आमाल – १५

मुसलमानों की हब्शा की हिजरत और शिबे-अबी-तालिब में कैद होना

मुसलमानों को और उनके सरदार फ़ख्रे दो आलम सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम को जब कुफ़्फ़ार से तकालीफ़ पहुंचती ही रही और आए दिन उनमें बजाए कमी के इजाफ़ा ही होता रहा तो हुजूरे अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम ने सहाबा रद़िय अल्लाहु अन्हुम को इसकी इजाजत फ़र्मा दी कि वो यहां से किसी दूसरी जगह चले जाएँ, तो बहुत से हज़रात ने हब्शा की हिजरत (खुदा के लिए अपना वतन माल-दौलत छोड़कर किसी दूसरी जगह चले जाना) फ़रमाई।

हब्शा के बादशाह गरचे नसरानी (ईसाई) थे और उस वक़्त तक मुसलमान न हुए थे मगर उनके रहम दिल और मुन्सिफ़ मिज़ाज (इंसाफ और न्याय पसंद करने वाला) होने की शोहरत थी।

चुनांचे नुबूव्वत के पाँचवें वर्ष रजब के महीने में पहली जमाअत के ग्यारह या बारह मर्द और चार या पांच औरतों ने हब्शा की तरफ़ हिजरत की। मक्का वालों ने उन का पीछा भी किया कि ये न जा सकें, मगर ये लोग हाथ न आये।

वहां पहुंच कर उनको यह खबर मिली कि मक्का वाले सब मुसलमान हो गए और इस्लाम को ग़लबा हो गया। इस खबर से ये हज़रात बहुत खुश हुए और अपने वतन वापस आ गए लेकिन मक्का-मुकर्रमा के क़रीब पहुंच कर मालूम हुआ कि यह खबर ग़लत थी और मक्का वाले उसी तरह, बल्कि उससे भी ज्यादा दुश्मनी और तक्लीफें पहुंचाने में मसरूफ़ (लगे हुए) हैं, तो बड़ी दिक़्क़त (परेशानी) हुई। इनमें से बाज़ हज़रात वहीं से वापस हो गए और बाज़ किसी की पनाह लेकर मक्का-मुकर्रमा में दाखिल हुए। यह हबशा की पहली हिजरत कहलाती है।

उसके बाद एक बड़ी जमाअत ने जो ८३ मर्द और १८ औरतें बतलाई जाती हैं, मुतफर्रिक तौर पर हिजरत की और यह हबशा की दूसरी हिजरत कहलाती है।

बाज़ सहाबा रद़िय अल्लाहु अन्हुम ने दोनों हिजरतें कीं और बाज़ ने एक।

कुफ़्फ़ार ने जब यह देखा कि यह लोग हबशा में चैन की जिंदगी बसर करने लगे तो उनको और भी गुस्सा आया और बहुत से तोहफ़े-तहाइफ़ ले कर नजाशी शाहे-हब्शा के पास एक वफ़्द (प्रतिनिधिमंडल, डेलिगेशन) भेजा जो बादशाह के लिए बहुत से तोहफ़े ले कर गया और उसके खवास और पादरियों के लिए भी बहुत से हदिये लेकर गया।

जाकर अव्वल पादरियों से और हुक्काम से मिला और हदिये देकर उनसे बादशाह के यहां अपनी सिफारिश का वादा लिया और फिर बादशाह की खिदमत में यह वफ्द हाज़िर हुआ। अव्वल बादशाह को सज्दा किया, फिर तोहफ़े पेश करके अपनी दर्खास्त पेश की और रिश्वतखोर हुक्काम ने ताईद (मदद) की।

उन्होंने कहा कि ऐ बादशाह! हमारी क़ौम के चंद बेवकूफ़ लड़के अपने क़दीमी (पूराने) दीन को छोड़कर एक नये दीन में दाखिल हो गए, जिसको न हम जानते हैं, न आप जानते हैं और आपके मुल्क में आकर रहने लगे। हमको शुरफ़ा-ए-मक्का ने और उन लोगों के बाप-चचा और रिश्तेदारों ने भेजा है कि उनको वापस लाएं। आप उनको हमारे सुपुर्द कर दें।

बादशाह ने कहा कि जिन लोगों ने मेरी पनाह पकड़ी है, बगैर तहक़ीक़ उनको हवाले नहीं कर सकता। अव्वल उनसे बुलाकर तहक़ीक़ कर लूं, अगर यह सही हुआ तो हवाले कर दूंगा।

चुनांचे मुसलमानों को बुलाया गया। मुसलमान अव्वल बहुत परीशान हुए क्या करें? मगर अल्लाह के फ़ज्ल ने मदद की और हिम्मत से यह तय किया कि चलना चाहिए और साफ़ बात कहना चाहिए।

बादशाह के यहां पहुंच कर सलाम किया। किसी ने एतिराज़ किया कि तुमने बादशाह को आदाबे-शाही के मुवाफ़िक़ सज्दा नहीं किया। उन लोगों ने कहा कि हमको हमारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम) ने अल्लाह के सिवा किसी को सज्दा करने की इजाज़त नहीं दी।

इसके बाद बादशाह ने उनसे हालात दर्याफ्त किये। हज़रत जाफ़र रद़िय अल्लाहु अन्हु आगे बढ़े और फ़रमाया कि हम लोग जिहालत में पड़े हुए थे, न अल्लाह को जानते थे, न उसके रसूलों से वाक़िफ़ (जानकार) थे, पत्थरों को पूजते थे, मुर्दार खाते थे, बुरे काम करते थे, रिश्ते-नातों को तोड़ते थे, हम में का कवी (मज़बूत) ज़ईफ़ (कमज़ोर) को हलाक कर देता था। हम इसी हाल में थे कि अल्लाह ने अपना एक रसूल भेजा, जिसके नसब (वंश) को, उसकी सच्चाई को, उसकी अमानतदारी को, परहेजगारी को हम खूब जानते हैं। उसने हम को एक अल्लाह वहदहू-ला-शरीका-लहू की इबादत की तरफ़ बुलाया और पत्थरों और बुतों के पूजने से मना फ़रमाया, उसने हमको अच्छे काम करने का हुक्म दिया, बुरे कामों से मना किया, उसने हमको सच बोलने का हुक्म दिया, अमानतदारी का हुक्म किया, सिला रहमी (रिश्ते जोड़ना) का हुक्म किया, पड़ोसी के साथ अच्छा बर्ताव करने का हुक्म किया, नमाज़, रोज़ा, सदक़ा-खैरात का हुक्म दिया और अच्छे अख्लाक़ तालीम किये, ज़िना, बद-कारी, झूठ बोलना, यतीम का माल खाना, किसी पर तोहमत लगाना और इस क़िस्म के बुरे आमाल से मना फ़रमाया। हमको क़ुरान पाक की तालीम दी, हम उस पर ईमान लाए और उसके फ़रमान की तामील की (फ़रमान पर अमल किया), जिस पर हमारी क़ौम हमारी दुश्मन हो गई और हम को हर तरह सताया। हम लोग मजबूर हो कर तुम्हारी पनाह में अपने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम) के इर्शाद से आये हैं।

बादशाह ने कहा: अच्छा, जो कुरान तुम्हारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम) ले कर आए हैं, वह कुछ मुझे सुनाओ।

हज़रत जाफ़र रद़िय अल्लाहु अन्हु ने सूरह मरयम की अव्वल (शुरू) की आयतें पढ़ीं, जिसको सुनकर बादशाह भी रो दिया और उसके पादरी भी, जो कसरत से मौजूद थे, सब के सब इस कदर रोये कि दाढ़ियां तर हो गईं।

उसके बाद बादशाह ने कहा कि खुदा की कसम ! यह कलाम और जो कलाम हजरत मूसा अलैहिस्सलाम लेकर आये थे, एक ही नूर से निकले हैं और उन लोगों से साफ इन्कार कर दिया कि मैं इनको तुम्हारे हवाले नहीं कर सकता।

वो लोग बड़े परेशान हुए कि बड़ी जिल्लत उठाना पड़ी। आपस में सलाह करके एक शख्स ने कहा कि कल मैं ऐसी तदबीर करूंगा कि बादशाह उनकी जड़ ही काट दे। साथियों ने कहा भी कि ऐसा नहीं चाहिए। ये लोग अगरचे मुसलमान हो गए, मगर फिर भी रिश्तेदार हैं, मगर उसने न माना।

दूसरे दिन फिर बादशाह के पास गए और जाकर कहा कि ये लोग हज़रत ईसा अलैहिमुस्सलाम की शान में गुस्ताखी करते हैं, उनको अल्लाह का बेटा नहीं मानते। बादशाह ने फिर मुसलमानों को बुलाया। सहाबा रद़िय अल्लाहु अन्हुम फ़रमाते हैं कि दूसरे दिन के बुलाने से हमें और भी ज़्यादा परेशानी हुई। बहरहाल गए।

बादशाह ने पूछा कि तुम हज़रत ईसा के बारे में क्या कहते हो?

उन्होंने कहा: वही कहते हैं जो हमारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम) पर उनकी शान में नाज़िल हुआ कि अल्लाह के बन्दे हैं, उसके रसूल हैं, उसकी रूह हैं और उसके कलिमा हैं, जिसको खुदा ने कुंवारी और पाक मरयम (अलैहस्सलाम) की तरफ़ डाला।

नजाशी ने कहा कि हजरत ईसा भी इसके सिवा कुछ नहीं फ़रमाते।

पादरी लोग आपस में कुछ चख-चख करने लगे। नजाशी ने कहा: तुम जो चाहो कहो। उसके बाद नजाशी ने उनके तोहफ़े वापस कर दिए और मुसलमानों से कहा, तुम अमन से रहो, जो शख्स इनको सताएगा, उस को तावान (जुर्माना) देना पड़ेगा और इसका एलान भी कर दिया कि जो शख्स इनको सताएगा, उसको तावान देना होगा।

इसकी वजह से वहां के मुसलमानों का इकराम और भी ज्यादा होने लगा और उस वफ्द को ज़िल्लत से वापस आना पड़ा।

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फिर कुफ़्फ़ारे-मक्का का जितना भी गुस्सा जोश करता जाहिर है। इसके साथ ही हजरत उमर रद़िय अल्लाहु अन्हु के इस्लाम लाने ने उनको और भी जला रखा था और हर वक़्त इस फ़िक्र में रहते थे कि इन लोगों का उनसे मिलना-जुलना बन्द हो जाए और इस्लाम का चिराग़ किसी तरह बुझे।

इसलिए सरदाराने-मक्का की एक बड़ी जमाअत ने आपस में मश्वरा किया कि अब खुल्लम-खुल्ला मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम को क़त्ल कर दिया जाये, लेकिन क़त्ल कर देना भी आसान काम न था, इसलिए कि बनू-हाशिम भी बड़े जत्थे और ऊंचे तब्क़े के लोग शुमार होते थे। वो अगरचे अक्सर मुसलमान नहीं हुए थे। लेकिन जो मुसलमान नहीं थे, वो भी हुज़ूर सल्लल्लाह अलैहि व-सल्लम के क़त्ल हो जाने पर आमादा (तैयार) नहीं थे।

इस लिए इन सब कुफ़्फ़ार ने मिलकर एक मुआहदा (समझौता) किया कि सारे बनू-हाशिम और बनुल-मुत्तलिब का बाईकाट किया जाए, न उन को कोई शख्स अपने पास बैठने दे, न उनसे कोई खरीदो-फरोख्त करे, न बात-चीत करे, न उनके घर जाए, न उनको अपने घर में आने दे और उस वक़्त तक सुलह न की जाए, जब तक कि वो लोग हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम को क़त्ल के लिये हवाले न कर दें।

यह मुआहदा (समझोता) ज़बानी ही गुफ़्तगू पर खत्म नहीं हुआ; बल्कि यकुम मुहर्रम (पहली मुहर्रम) सन ७ नबवी को एक मुआहदा तहरीरी लिख कर बैतुल्लाह में लटकाया गया; ताकि हर शख़्स उसका एहतिराम करे और उसको पूरा करने की कोशिश करे।

और इस मुआहदा की वजह से तीन वर्ष तक ये सब हज़रात दो पहाड़ों के दरम्यान एक घाटी में नज़रबन्द रहे कि न कोई उनसे मिल सकता था, न ये किसी में मिल सकते थे, न मक्का के किसी आदमी से कोई चीज़ खरीद सकते थे, न बाहर के आने वाले किसी ताजिर से मिल सकते थे।

अगर कोई शख्स बाहर निकलता तो पीटा जाता और किसी से जरूरत का इज़्हार करता तो साफ़ जवाब पाता।

मामूली सा सामान, गल्ला (अनाज) वगैरह जो उन लोगों के पास था, वह कहां तक काम देता। आखिर फ़ाक़ों पर फ़ाक़े (भुखमरी) गुज़रने लगे और औरतें और बच्चे भूख से बेताब हो कर रोते और चिल्लाते और उनके अइज़्ज़ा (रिश्तेदारों) को अपनी भूख और तकालीफ़ से ज़्यादा इन बच्चों की तकालीफ़ सतातीं।

आखिर तीन वर्ष के बाद अल्लाह के फ़ज़्ल से (मेहरबानी से) वह सहीफ़ा (पत्र) दीमक की नज़र हुआ और इन हज़रात की यह मुसीबत दूर हुई।

तीन वर्ष का ज़माना ऐसे सख्त बाईकाट और नज़रबन्दी में गुज़रा और ऐसी हालत में इन हज़रात पर क्या-क्या मशक्कतें गुजरी होंगी वह ज़ाहिर है, लेकिन इसके बावजूद सहाबा-ए-किराम रद़िय अल्लाहु अन्हुम अज्मईन निहायत ही साबित-क़दमी (इरादे की पुख्तगी) के साथ अपने दीन पर जमे रहे, बल्कि उसकी इशाअत (फैलाना) फ़रमाते रहे।

फ़ायदा: तकालीफ़ और मशक्कतें उन लोगों ने उठाई हैं, जिन के आज हम नाम लेवा कहलाते हैं और अपने को उनका मुत्तबेअ (पीछे चलने वाले) बतलाते और समझते हैं, हम लोग तरक़्क़ी के बाब (विषय) में सहाबा-ए-किराम रद़िय अल्लाहु अन्हुम जैसी तरक़्क़ियों के ख्वाब देखते हैं, लेकिन किसी वक़्त ज़रा गौर कर के यह भी सोचना चाहिए कि इन हज़रात ने कुर्बानियाँ कितनी फ़रमाईं और हमने दीन की खातिर, इस्लाम की खातिर, मज़हब की खातिर क्या किया?

कामयाबी हमेशा कोशिश और सई के मुनासिब होती है। हम लोग चाहते हैं कि ऐशो-आराम, बद-दीनी और दुनिया-तलबी में काफ़िरों के दोश-बदोश (कंधे से कंधा मिलाकर यानी साथ-साथ) चलें और इस्लामी तरक्की हमारे साथ हो, यह कैसे हो सकता है?

तरसम न-रसी ब-काबा ऐ आ’राबी कीं रह कि तू मीरवी ब-तुर्किस्तानस्त

तर्जमा- मुझे ख़ौफ़ है ओ अरबी देहाती! कि तू काबा को नहीं पहुंच सकता, इसलिए कि यह रास्ता काबा की दूसरी जानिब तुर्किस्तान की तरफ़ जाता है।

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