फज़ाइले-सदकात – ६

‘उलमा-ए-आख़िरत की बारह निशानियाँ

इमाम गज़ाली रहिमहुल्लाह फरमाते हैं कि जो आलिम दुनियादार हो वह अह़वाल (हालत,परिस्थिति,मुआमले) के एतिबार से जाहिल से ज़्यादा कमीना है और अज़ाब के एतिबार से ज़्यादा सख़्ती में मुब्तला होगा और कामयाब और अल्लाह-तआला के यहां मुकर्रब उलमा-ए-आख़िरत हैं जिनकी चंद आलमतें हैं।

पहेली अलामत:

अपने इल्म से दुनिया न कमाता हो। आलिम का कम से कम दरजा यह है कि दुनिया की हकारत का, उसके कमीने पन का, उसके मुकद्दर (धूल-भरा,गंदगी वाला,मैला) होने का, उसके जल्द ख़त्म हो जाने का उसको एहसास हो, आख़िरत की अज़मत, उसका हंमेशा रहना, उसकी नेमतों की उम्दगी का एहसास हो।

और यह बात अच्छी तरह जानता हो कि दुनिया और आख़िरत दोनों एक दूसरे की ज़िद हैं, दो सौकनों की तरह हैं, जौन सी एक को राज़ी करेगा, दूसरी ख़फ़ा हो जाएगी। ये दोनों तराज़ू के दो पलड़ों की तरह से हैं। जौन सा एक पलड़ा झुकेगा दूसरा हल्का हो जाएगा। दोनों में मशिरक मग्रिब का फर्क है, जौन से एक से तू करीब होगा, दूसरे से दूर हो जायेगा।

जो शख़्स दुनिया की हकारत का, उसके गदलेपन का और इस बात का एहसास नहीं करता कि दुनिया की लज़्ज़तें, दोनों जहां की तक्लीफों के साथ मुंज़म (मिला हुआ) हैं, वह फ़ासिदुल अक़्ल है।

मुशाहदा और तजुर्बा इन बातों का शाहिद है कि दुनिया की लज़्ज़तों में दुनिया की भी तकलीफ है और आख़िरत की तक्लीफ तो है ही।

पस जिस शख्स को अक़्ल ही नहीं वह आलिम कैसे हो सकता है, बल्कि जो शख़्स आख़िरत की बड़ाई और उसके हमेशा रहने को भी नहीं जानता वह तो काफिर है, ऐसा शख़्स कैसे आलिम हो सकता है, जिसको ईमान भी नसीब न हो?

और जो शख़्स दुनिया और आख़िरत का एक दूसरे की ज़िद होने को नहीं जानता और दोनों के दर्मियान जमा करने की तमअ (लालच) में है, वह ऐसी चीज़ में तमअ कर रहा है जो तमअ करने की चीज़ नहीं है। वह शख़्स तमाम अंबिया ‘अलैहिमुस्सलाम की शरीअत से नावाकिफ है।

और जो शख़्स इन सब चीज़ों को जानने के बावजूद दुनिया को तर्जीह देता है वह शैतान का कैदी है, जिसको शहवतों ने हलाक कर रखा है। और बद बख़्ती उस पर ग़ालिब है जिसकी यह हालत हो वह उलमा में कैसे शुमार होगा?

हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम ने अल्लाह तआला का इर्शाद नकल किया है कि जो आलिम दुनिया की ख़्वाहिश को मेरी मुहब्बत पर तर्जीह देता है उसके साथ अदना से अदना मामला मैं यह करता हूँ कि अपनी मुनाजात की लज़्ज़त से उसको मह़रूम कर देता हूँ। (कि मेरी याद में, मेरी दुआ में, उसको लज़्ज़त नहीं आती।)

ऐ दाऊद! (अलैहिस्सलाम) ऐसे आलिम का हाल न पूछ जिसको दुनिया का नशा सवार हो कि मेरी मुहब्बत से तुझको दूर कर दे, ऐसे लोग डाकू हैं। ऐ दाऊद! (अलैहिस्सलाम) जब तू किसी को मेरा तालिब देखे तो उसका खादिम बन जा। ऐ दाऊद! (अलैहिस्सलाम) जो शख़्स भाग कर मेरी तरफ आता है, मैं उसको जहबज़ (हाज़िक, समझदार) लिख देता हूँ और जिसको जहबज़ लिख देता हूँ, उसको अज़ाब नहीं करता।

यह्या बिन मुआज़ रदिय अल्लाहु अन्हू कहते हैं कि इल्म व हिक्मत से जब दुनिया तलब की जाये तो उनकी रौनक जाती रहती है।

सईद बिन मुसैय्यिब रहिमहुल्लाह कहते हैं कि जब किसी आलिम को देखो कि वह उमरा (अमीरों) के यहां पड़ा रहता है तो उसको चोर समझो।

और हज़रत उमर रदिय अल्लाहु अन्हू फरमाते हैं कि जिस आलिम को दुनिया से मुहब्बत रखने वाला देखो, अपने दीन के बारे में उसको मुत्तहम (इल्ज़ाम लगाया हुआ) समझो। इसलिए कि जिस शख़्स को जिस से मुहब्बत होती है उसी में घुसा करता है।

एक बुर्जुग से किसी ने पूछा कि जिसको गुनाह में लज्ज़त आती हो, वह अल्लाह का आरिफ हो सकता है? उन्होंने फरमाया कि मुझे इसमें ज़रा तरदुद (शक) नहीं है कि जो शख़्स दुनिया को आख़िरत पर तर्जीह दे, वह आरिफ नहीं हो सकता और गुनाह करने का दरजा तो इससे बहुत ज़्यादा है।

और यह बात भी ज़हन में रखना चाहिए, कि सिर्फ माल की मुहब्बत न होने से आख़िरत का आलिम नहीं होता, जाह का दरजा और उसका नुक्सान माल से भी बढ़ा हुआ है। यानी जितनी व’ईदें (अज़ाब की घमकीयां) ऊपर दुनिया के तर्जीह देने की और उसकी तलब की गुज़री हैं, उनमें सिर्फ माल कमाना ही दाखिल नहीं बल्कि जाह की तलब, माल की तलब की बनिस्बत ज़्यादा दाखिल है इसलिए कि जाह तलबी का नुक्सान और उसकी मज़र्रत माल तलबी से भी ज़्यादा सख़्त है। (पेज नंबर: ११९ – १२०)

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