रसूले करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) के रवज़ए मुबारक की ज़ियारत के फ़ज़ाईल
नबिए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की शफ़ाअत का हुसूल
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि.) से रिवायत है के रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमायाः जो शख़्स मेरी क़बर की ज़ियारत करे, उस के लिए मेरी शफ़ाअत वाजिब होगी. (में उस के लिए क़यामत के दिन अल्लाह तआला से ज़रूर सिफ़ारिश करूंगा के उस को बख़्श दिया जाए). [१]
रवज़ए अक़दस की ज़ियारत की फ़ज़ीलत
हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ि.) से रिवायत है के रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमायाः जो शख़्स मेरी वफ़ात के बाद मेरी क़बर की ज़ियारत करे, वह उस शख़्स की तरह होगा जिस ने मेरी ज़िन्दगी में मेरी ज़ियारत की. [२]
क़यामत के दिन नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) के पड़ोसी होने का शरफ़
हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) से नक़ल किया गया के “जो शख़्स (ख़ुसूसी तौर पर) इरादा कर के मेरी ज़ियारत करे वह क़यामत में मेरे पड़ोस में होगा और जो शख़्स मदीना में क़याम करे और वहां की तंगी और तकलीफ़ पर सबर करे में उस के लिए क़यामत में गवाह और सिफ़ारिशी होंगा और जो हरमे मक्का तथा हरमे मदीना में मर जाएगा वह क़यामत में अमन वालों में उठेगा.” [३]
नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का सलाम करने वाले को जवाब देना
हु़ज़ूरे अक़दस (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का इरशाद है के “जो शख़्स भी मेरी क़बर के पास आ कर मुझ पर सलाम पढ़े, तो अल्लाह जल्ल शानुहु मेरी रूह मुझ तक पहोंचा देते हैं. में उस के सलाम का जवाब देता हुं.” [४]
इब्ने हजर (रह.) शर्रह मनासिक में लिखते हैं के मेरी रूह मुझ तक पहोंचाने का मतलब यह है के बोलने की क़ुव्वत अता फ़रमा देते हैं. क़ाज़ी इयाज़ (रह.) ने फ़रमाया है के हुज़ूरे अक़दस (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की रूह मुबारक अल्लाह जल्ल शानुहु की हुज़ूरी में मुसतग़रक़ रेहती है, तो उस हालत से सलाम का जवाब देने की तरफ़ मुतवज्जेह होती है. [५]
अकषर उलमा ने मिन जुम्ला उन के हाफ़िज़ इब्ने हजर (रह.) भी अल्लामा ज़रक़ानी (रह.) से नक़ल किया के यह मतलब नही के उस वक़्त रूह वापस आती है, बलके वह तो विसाल के बाद एक मर्तबा वापस आ चुकी तो मतलब यह है के में चुंके रूह मेरी वापस आ चुकी उस के सलाम का जवाब देता हुं. [६]
फ़रिश्तों की दुआ
यह नक़ल किया गया के जो शख़्स हुज़ूरे अक़दस (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का क़बर मुबारक के पास खड़े हो कर यह आयत पढ़ीः
اِنَّ اللّٰہَ وَ مَلٰٓئِکَتَہٗ یُصَلُّوۡنَ عَلَی النَّبِیِّ ؕ یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا صَلُّوۡا عَلَیۡہِ وَ سَلِّمُوۡا تَسۡلِیۡمًا ﴿۵۶﴾
उस के बाद सत्तर (७०) मर्तबा कहेः
صَلّٰى اللهُ عَلَيْكَ يَا مُحَمَّدْ
तो एक फ़रिश्ता केहता है के “ए शख़्स अल्लाह जल्ल शानुहु तुझ पर रहमत नाज़िल करता है और उस की हर हाजत पूरी कर दी जाती है.”
मुल्ला अली क़ारी (रह.) ने लिखा है के “सल्लल्लाहु अलयक या मुहम्मद” की जगह “या रसूलल्लाह” कहे, तो ज़्यादा बेहतर है. अल्लामा क़सतल्लानी (रह.) ने शैख़ ज़ैनुद्दीन मराग़ी (रह.) वग़ैरह से भी यही नक़ल किया है के “या रसूलल्लाह” केहना अवला है. [७]
अल्लामाा ज़रक़ानी (रह.) शर्ह मवाहिब में लिखते हैं के इस वजह से के हुज़ूरे अक़दस (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का नाम लेकर पुकारने की मुमानअत है, लेकिन अगर यही शब्द रिवायत में मनक़ूल है, तो मनक़ूल की रिआयत की वजह से मुमानअत नहीं रहेगी.
हज़रत शैख़ मौलाना मुहम्मद ज़करिय्या कांधलवी (रह.) ने फ़रमाया के “इस नापाको नाकारा के ख़्याल में रवज़ए मुबारक पर मुज़व्विरों के रटे हुए शब्दों को वग़ैर समझे तोते की तरह पढ़ने के बजाए निहायत ख़ुज़ूअ, खुशूअ, सुकून, वक़ार से सत्तर (७०) मर्तबा निम्नलिखित दुरूद हाज़री के वक़्त पढ़ लिया करे, तो शायद बेहतर हो.”
اَلصَّلَاةُ وَالسَّلَامُ عَلَيْكَ يَا رَسُوْلَ الله
[१]عن ابن عمر قال قال رسول الله صلى الله عليه وسلم من زار قبري وجبت له شفاعتي (سنن الدارقطني، الرقم: ۲٦۹۵) رواه البزار والدارقطني قاله النووي وقال ابن حجر في شرح المناسك: رواه ابن خزيمة في صحيحه وصححه جماعة كعبد الحق والتقي السبكي وقال القاري في شرح الشفا : صححه جماعة من أئمة الحديث. (فضائلِ حج صـ ۱۸۲)
[२] عن ابن عمر عن النبي صلى الله عليه وسلم قال من زار قبري بعد موتي كان كمن زارني في حياتي (المعجم الأوسط، الرقم: ۲۸۷) رواه الطبراني والدارقطني والبيهقي وضعفه كذا في الإتحاف وفي المشكوة برواية البيهقي في الشعب بلفظ : من حج فزار قبري بعد موتي كان كمن زارني في حياتي واستدل به الموفق في المغني على استحباب الزيارة (فضائلِ حج صـ ۱۸٤)
[३] عن رجل من آل الخطاب عن النبي صلى الله عليه وسلم قال من زارني متعمدا كان في جواري يوم القيامة ومن سكن المدينة وصبر على بلائها كنت له شهيدا وشفيعا يوم القيامة ومن مات في أحد الحرمين بعثه الله من الآمنين يوم القيامة (شعب الإيمان، الرقم: ۳۸۵٦) رواه البيهقي في الشعب كذا في المشكوة وفي الإتحاف برواية الطيالسي بسنده إلى ابن عمر عن عمر ثم قال : وعن رجل من آل خطاب رفعه من زارني متعمدا كان في جواري يوم القيامة … الحديث أخرجه البيهقي وهو مرسل والرجل المذكور مجهول وبسط الكلام على طرقه السبكي وقال : هو مرسل جيد (فضائلِ حج صـ ۱۸۵)
[४] عن أبي هريرة أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: ما من أحد يسلم علي إلا رد الله علي روحي حتى أرد عليه السلام (سنن أبي داود، الرقم:۲٠٤۱، وسنده جيد كما قال العراقي في المغني عن حمل الأسفار في الأسفار صـ ۳٦۷) رواه أحمد في رواية عبد الله كذا في المغني للموفق وأخرجه أبو داود بدون لفظ عند قبري لكن رواه في باب زيارة القبور بعد أبواب المدينة من كتاب الحج (فضائلِ حج صـ ۱۸۹)
[५ قال ابن حجر أي نطقي … قال القاضي لعل معناه أن روحه المقدسة في شأن ما في الحضرة الإلهية فإذا بلغه سلام أحد من الأمة رد الله تعالى روحه المطهرة من تلك الحالة إلى رد من سلم عليه (مرقاة المفاتيح ۲/۷٤۳)
[६] ما من أحد يسلم علي إلا رد الله علي روحي حتى أرد عليه السلام … ووجه الإشكال فيه أن ظاهره أن عود الروح إلى الجسد يقتضي انفصالها عنه وهو الموت وقد أجاب العلماء عن ذلك بأجوبة أحدها أن المراد بقوله رد الله علي روحي أن رد روحه كانت سابقة عقب دفنه لا أنها تعاد ثم تنزع ثم تعاد الثاني سلمنا لكن ليس هو نزع موت بل لا مشقة فيه الثالث أن المراد بالروح الملك الموكل بذلك الرابع المراد بالروح النطق فتجوز فيه من جهة خطابنا بما نفهمه الخامس أنه يستغرق في أمور الملإ الأعلى فإذا سلم عليه رجع إليه فهمه ليجيب من سلم عليه (فتح الباري ٦/٤۸۸)
ما من أحد يسلم علي إلا رد الله علي روحي حتى أرد عليه السلام … ووجه إشكاله ظاهر لأن عود الروح في الجسد يقتضي انفصالها عنه وهو الموت وأجاب العلماء بأن المراد أن روحه كانت سابقة عقب دفنه لأنها تعاد ثم تنزع ثم تعاد سلمنا لكن ليس بنزع موت بل لا مشقة فيه وبأن المراد بالروح الملك الموكل بذلك أو النطق فتجوز فيه من جهة خطابنا بما نفهمه وبأنه يستغرق في أمور الملأ الأعلى فإذا سلم عليه رجع إليه فهمه ليجيب من يسلم عليه (شرح الزرقاني على الموطا ٤/٤٤۷)
[७] حدثنا ابن أبي فديك قال سمعت بعض من أدركت يقول بلغنا أنه من وقف عند قبر النبي صلى الله عليه وسلم فتلا هذه الآية إن الله وملائكته يصلون على النبي يا أيها الذين آمنوا صلوا عليه وسلموا تسليما صلى الله عليك يا محمد حتى يقولها سبعين مرة فأجابه ملك صلى الله عليك يا فلان لم يسقط لك حاجة (شعب الإيمان، الرقم: ۳۸۷۲)
(وقال ابن أبي فديك) بالتصغير وثقه جماعة واحتج به أصحاب الكتب الستة (سمعت بعض من أدركت يقول بلغنا) أي في الحديث (أنه) أي الشأن (من وقف عند قبر النبي صلى الله تعالى عليه وسلم فتلا هذه الآية (وهي قوله تعالى (إن الله وملائكته يصلون على النبي) الظاهر أنه يقرأ ما بعدها أيضا وهو يا أيها الذين آمنوا صلوا عليه وسلموا تسليما (ثم قال صلى الله تعالى عليك) الأولى أن يزيد وسلم (يا محمد) الأولى أن يقول يا نبي الله ونحوه (من يقولها سبعين مرة ناداه ملك صلى الله عليك يا فلان) أي باسمه (ولم تسقط له) وفي نسخة لك (حاجة) بل ترفع والمعنى قضيت كل حاجة له دنيوية أو أخروية والحديث رواه البيهقي (شرح الشفا للقاري ۲/۱۵۲)
قال الشيخ زين الدين المراغى وغيره الأولى أن ينادى يا رسول الله وإن كانت الرواية يا محمد انتهى (المواهب اللدنية ۳/۵۹۷)