इज़तिबाअ और रमल
उमरह के तवाफ़ में मर्द इज़तिबाअ और रमल करेगा.
इज़तिबाअ यह है के तवाफ़ करने वाला मर्द एहराम की चादर को दायीं बग़ल में से निकाल कर बायें कंधे पर ड़ालेगा और दाहना कंधा खुला छोडेगा. पूरे तवाफ़ में (यअनी सातों चक्करो में) मर्द इज़तिबाअ करेगा.
और रमल यह है के मर्द कंधों को हिलाते हुए कुछ तेज़ी के साथ चलेगा और अपने क़दम को क़रीब क़रीब रख कर चलेगा. तवाफ़ के पेहले तीन चक्करों मे मर्द रमल करेगा.
नोटः- इज़तिबाअ और रमल सिर्फ़ मर्दों के लिए है. औरतें इज़तिबाअ और रमल नहीं करेंगी.
तवाफ़ के बाद दो रकअत वाजिब नमाज़
उमरह का तवाफ़ मुकम्मल करने के बाद दो रकअत नमाज़ पढ़ना वाजिब है. इस नमाज़ को “वाजिबतुत तवाफ़” कहा जाता है.
अफ़ज़ल यह है के यह दो रकअतें मक़ामे इब्राहीम के पीछे पढ़ी जाऐं, लेकिन अगर कोई शख़्स यह दो रकअतें मस्जिदुल हराम के अन्दर किसी और जगह में पढ़े तथा मस्जिदुल हराम के बाहर हुदूदे हरम के अन्दर पढ़े, तो यह जाईज़ है. अलबत्ता यह दोनों रकअतें हुदूदे हरम से बाहर पढ़ना मकरूह है.
यह दोनों रकअतें मकरूह अवक़ात में नहीं पढ़ी जा सकती हैं. मिषाल के तौर पर फ़जर की नमाज़ के बाद से तुलूए आफ़ताब तक और असर की फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ने के बाद से ग़ुरूबे आफ़ताब तक यह दोनों रकअतें नहीं पढ़ी जा सकती हैं.
अगर किसी ने इन मकरूह अवक़ात में (यअनी फ़जर के बाद तथा असर के बाद) तवाफ़ किया हो, तो एसे शख़्स को चाहिए के वह इन दोनों रकअतों को तुलूए आफ़ताब और ग़ुरूबे आफ़ताब के बाद पढ़े.
तवाफ़ के बाद दो रकअतों में मुस्तहब यह है के पेहली रकअत में सुरए काफ़िरून और दूसरी रकअत में सुरए इख़्लास पढ़ा जाए.
दो रकअत वाजिबतुत तवाफ़ पढ़ने के बाद सई के लिए आगे बढ़ें.
सई
सई से पेहले मुहरिम (एहराम वाले शख़्स) के लिए मुस्तहब है के वह ज़मज़म का पानी पीए, चुनांचे हदीष शरीफ़ में वारिद है के नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने हज्ज के मोक़े पर उमरह के तवाफ़ करने के बाद ज़मज़म का पानी नोश फ़रमाया फिर उस के बाद आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) सई के लिए तशरीफ़ ले गए.
सई शुरू करने से पेहले हजरे अस्वद का इस्तिलाम करना मस्नून है. यह इस्तिलाम नवां इस्तिलाम होगा.
सई करने वाला सफ़ा से सई शुरू करेगा और मरवह की तरफ़ चलेगा. सफ़ा से मरवह तक सई का एक चक्कर शुमार होगा और मरवह से सफ़ा तक सई का दूसरा चक्कर शुमार होगा. इस तरह से सई के सात चक्कर मरवह पर ख़तम होंगे.
सई के दौरान जब मिलैन मुहरिम मर्द मिलैन अख़ज़रैन (लिली बत्तियां) की जगह पर पहोंचें, तो उन को दोड़ना चाहिए यहां तक के वह उस जगह से गुज़र जाएं, जब वह उस जगह से गुज़र जाएं तो उन को सामान्य गति से चलना चाहिए, लेकिन यह हुकम मर्दों के साथ ख़ास है.
औरतों के बारे में मस्अला यह है के उन को चाहिए के मिलैन अख़ज़रैन की जगह में और उस के अलावह पूरे सई में सामन्य गति से चलना चाहिए.
जब सई मुकम्मल हो जाए, तो आप दो रकअत नफ़ल नमाज़ अदा करें.
हलक़
सई मुकम्मल करने के बाद सर के बाल मुंड़वाए तथा कतरवाए. मुहरिम मर्द को इख़्तियार है के वह बाल मुंड़वाए तथा बाल कतरवाए, अलबत्ता मर्द के लिए बाल मुंडवाना बाल कतरवाने से अफ़ज़ल है और उसी में ज़्यादह षवाब है.
औरतों सिर्फ़ बाल कतरवाना चाहिए. उन के लिए बाल मुंड़वाना हराम है. औरतों को चाहिए के वह सर के तमाम बालों को जमअ कर लें और एक ऊंगली के इर्द गिर्द ले लें फिर एक ऊंगली के पोर के बराबर कतरवा ले.
जो आदमी उमरह के तमाम अफ़आल से फ़ारिग़ हो जाए (यअनी तवाफ़ और सई से फ़ारिग़ हो जाए) और सिर्फ़ हलक़ रेह जाए, तो वह अपने बाल ख़ुद काट सकता है तथा किसी एसे शख़्स से कटवा सकता है जो एहराम की हालत में न हो.
इसी तरह अगर शौहर और बिवी उमरह के तमाम अफ़आल से फ़ारिग़ हो चुके हों और सिर्फ़ उन के लिए बाल का काटना रेह जाए, तो वह एक दूसरे के बाल काट सकते हैं. बाल काटने के बाद इन्सान हालते एहराम से निकल जाएगा और उस का उमरह पूरा हो जाएगा.
उमरह पूरा करने के बाद इन्सान मक्का मुकर्रमा में क़याम करे. यहां तक के हज्ज के अय्याम आ जाऐं. जब हज्ज के अय्याम आ जाऐं, तो वह हज्ज का एहराम बांधे और हज्ज के अरकान अदा करे.
हज्ज के पांच दिन
हज्ज पैदल चल कर अदा करने का अज़ीम षवाब
हज्ज के पांच दिनों में अगर इन्सान चाहे, तो पैदल चल सकता है और अगर चाहे तो सवारी से जा सकता है, लेकिन पैदल चलने में ज़्यादा षवाब है.
अगर कोई शख़्स सवारी के ज़रीए हज्ज अदा करे और कुछ क़दम चले तथा हज्ज के कुछ हिस्से में पैदल चले (जैसे सवारी से उतर कर ख़ैमे तक पैदल जाए) तो जितनी दूर वह पैदल चलेगा, उस के बक़दर उस को पैदल हज्ज का षवाब मिलेगा.
हज़रत आंयशा (रज़ि.) हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) से नक़ल फ़रमाती हैं के फ़रिश्ते उन हाजियों से जो सवारी पर आते हैं मुसाफ़हा करते हैं और जो पैदल चल कर आते हैं उन से मुसाफ़हा करते हैं (यअनी पैदल चलने वालों की ज़्यादह इज़्ज़त की जाती है). (शोअबुल इमान)
एक दूसरी रिवायत में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (रज़ि.) से मनक़ूल है के रसूले करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमाया के जो शख़्स हज्ज के लिए पैदल जाए और आए उस के लिए हर हर क़दम पर हरम की नेकियों में से सात सो नेकियां लिखी जाऐंगी किसी ने अर्ज़ किया के हरम की नेकियों का क्या मतलब? हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने फ़रमाया के हर नेकी एक लाख नेकी के बराबर है. (अल मुस्तदरक अलस सहीहैन लिल हाकिम)
आंठवीं ज़िल हिज्जा
हज्ज के पांच दिनों में से आंठवीं ज़िल हिज्जा हज्ज का पेहला दिन है. आंठवीं ज़िल हिज्जा की सुबह इन्सान एहराम बांध कर और सूरज के तुलूअ (सुर्योदय) होने के बाद मिना की तरफ़ चलेगा.
मिना पहोंचने के बाद इन्सान क़याम करेगा और जब ज़ोहर का वक़्त दाख़िल हो जाए, तो वह ज़ोहर की नमाज़ को मुस्तहब वक़्त में अदा करेगा.
आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की सुन्नत यह है के इन्सान मिना में क़याम कर के पांच नमाज़ें अदा करे (यअनी आंठवी ज़िल हिज्जा की ज़ोहर, असर, मग़रिब, इशा और नवीं ज़िल हिज्जा की फ़जर तक).
हाजी को चाहिए के नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की इस मुबारक सुन्नत पर अमल करते हुए मिना में क़याम करे और मज़कूरा पांच वक़्त की नमाज़ें अदा करे.
यह बात भी ज़हन में रहे के मिना में रात गुज़ारना भी सुन्नत है.
मिना में क़याम के दौरान इन्सान इबादत करे (ज़िकर करे, तलबियह पढ़े, नफ़ल नमाज़ पढ़े और क़ुर्आने करीम की तिलावत करे वग़ैरह).
नवीं ज़िल हिज्जा
नवीं ज़िल हिज्जा की सुबह हाजी मिना में फ़जर की नमाज़ अदा करने के बाद सूरज के निकलने का इन्तिज़ार करेगा फिर अरफ़ा के लिए रवाना हो जाएगा. अरफ़ा जाते हुए हाजी ज़िकरे इलाही में व्यस्त रहेगा और तलबियह भी पढ़ते रहेगा.
हाजी को चाहिए के एहराम में दाख़िल होने के वक़्त से लेकर दसवीं ज़िल हिज्जा के रमी जमरह तक तलबियह पढ़े, जब दसवीं ज़िल हिज्जा का रमी जमरह शुरू होता है, तो तलबियह पढ़ना बंद होता है. फिर उस के बाद हज्ज के अख़ीर तक तलबियह नहीं पढ़ा जाएगा.
अरफ़ा पहोंचने के बाद हाजी ग़ुसल करेगा. यह ग़ुसल वक़ूफ़े अरफ़ा के लिए है, लिहाज़ा हाजी को वुक़ूफ़ शुरू करने से पेहले ग़ुसल करना चाहिए. हाजी के लिए जाईज़ है के वह इस ग़ुसल को ज़वाल के बाद करे तथा ज़वाल से पेहले करे.
हदीष शरीफ़ में आया है के हज़रत रसूले करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने अरफ़ा के दिन ग़ुसल फ़रमाया था.
अरफ़ा में वुक़ूफ़
वुक़ूफ़े अरफ़ा यह है के हाजी ज़वाल के बाद अरफ़ा की ज़मीन में खड़ा हो जाए और ख़ूब दुआ और इस्तिग़फ़ार करे. क़ूर्आने पाक की तिलावत करे और तलबिया पढ़े.
वुक़ूफ़े अरफ़ा के वक़्त बेहतर यह है के हाजी क़िब्ले की तरफ़ रूख़ कर के खड़े हो जाए. बैठना और लेटना भी उस के लिए जाईज़ है. लेकिन यह बात ज़हन में रखें के वुक़ूफ़ के वक़्त हाजी खैल तमाशा और लायअनी कामों में कदापी व्यस्त न हो, क्युंकि यह इन्तिहाई मुबारक वक़्त है.
वुक़ूफ़े अरफ़ा का वक़्त नवीं ज़िल हिज्जा को ज़वाल के बाद से शुरू होता है और दसवीं ज़िल हिज्जा को सुबह सादिक़ के वक़्त तक ख़तम होता है. वक़ूफ़े अरफ़ा हज्ज का असल रूक्न और फ़र्ज़ है. उस के बग़ैर हज्ज अदा नहीं होगा, लिहाज़ा अगर वुक़ूफ़े अरफ़ा किसी से छूट जाए, तो उस का हज्ज अदा नहीं होगा.
चुंके वुक़ूफ़े अरफ़ा का वक़्त नवीं ज़िल हिज्जा को ज़वाल के बाद शुरू होता है और दसवीं ज़िल हिज्जा की सुबह सादिक़ तक रेहता है, लिहाज़ा अगर कोई शख़्स नवीं ज़िल हिज्जा को ग़ुरूबे आफ़ताब से पेहले अरफ़ा में हाज़िर न हुवा, तो उस के लिए ग़ुरूबे आफ़ताब के बाद अरफ़ा आने का मोक़ा है.
जो लोग ग़ुरूबे आफ़ताब से पेहले अरफ़ा में हाज़िर थे, उन के लिए सुन्नत यह है के वह ग़ुरूबे आफ़ताब के बाद मुज़दलिफ़ा के लिए रवाना हो जाऐं.
ग़ुरूबे आफ़ताब से पेहले हाजी के लिए अरफ़ा से निकलना जाईज़ नहीं है अगर कोई शख़्स ग़ुरूबे आफ़ताब से पेहले अरफ़ा से निकल जाए, तो उस पर दम वाजिब होगा (यअनी उस पर वाजिब है के वह हुदूदे हरम में एक दुम्बा तथा एक बकरी ज़बह करे जिनायत के लिए). अलबत्ता अगर वह शख़्स दोबारा अरफ़ा की तरफ़ लोट जाए और ग़ुरूबे आफ़ताब के बाद अरफ़ा से रवाना हो जाए, तो वह दम उस के ज़िम्मे से साक़ित हो जाएगा.
हाजी जब अरफ़ा में हो, तो वह ज़वाल के बाद से गु़रूबे आफ़ताब तक वुक़ूफ़ में व्यस्त रहेगा और वह ज़ोहर और असर नमाज़ को जमाअत के साथ उन के नियुक्त अवक़ात में पढ़ेगा.
ग़ुरूबे आफ़ताब के बाद हाजी मुज़दलिफ़ा के लिए रवाना हो जाए, रवाना होते वक़्त हाजी तलबियह पढ़ते हुए और दुआ करते हुए रवाना होगा.
हदीष शरीफ़ में नवीं ज़िल हिज्जा के बारे में (यअनी अरफ़ा के दिन) रोज़ा रखने की बहोत बड़ी फ़ज़ीलत वारिद हुई है, लिहाज़ा जो लोग एहराम की हालत में न हों, उन के लिए उस दिन रोज़ा रखना मुस्तहब है.
अलबत्ता जो लोग एहराम की हालत में हों (हाजियों के लिए), तो अगर चे उन के लिए उस दिन रोज़ा रखना जाईज़ है, मगर उन के लिए रोज़ा न रखना अफ़ज़ल है. क्युंकि आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने हज्ज के दौरान उस दिन रोज़ा नहीं रखा था.
उलमाए किराम ने हज़्ज़ के दौरान आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) के रोज़ा न रखने की वजह यह बयान की है के आप (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) हुज्जाजे किराम के लिए सहूलत चाहते थे के वह उस दिन अपनी क़ुव्वत बाक़ी रखे, ताकि वह वुक़ूफ़े अरफ़ा और हज्ज के दीगर अरकान आसानी से अदा कर सकें.
अरफ़ा में कौनसी दुआऐं पढ़नी चाहिए
अरफ़ा के दिन वह लोग जो हज्ज में है और वह लोग जो हज्ज में नही है दोनों को निम्नलिखित दुआ कषरत से पढ़नी चाहिएः
لَا إِلٰهَ إِلَّا اللهُ وَحْدَهُ لَا شَرِيْكَ لَهُ لَهُ الْمُلْكُ وَلَهُ الْحَمْدُ وَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
अल्लाह के अलावह कोई माबूद नहीं है. वह अकेला है. उन का कोई शरीक नहीं है. उन ही के लिए (तमाम जहां की) बादशाहत है और उन ही के लिए (तमाम) तारीफ़ है. उन ही के हाथ में भलाई है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है.
अरफ़ा के दिन हाजी ख़ूब दुआ करें, क्युंकि यह बहोत मुबारक दिन है. यह दिन ज़िल हिज्जह के पेहले दस दिनों का सब से अफ़ज़ल दिन है.
हज़रत अली (रज़ि.) से मनक़ूल है के अल्लाह तआला अरफ़ा के दिन दूसरे दिनों के मुक़ाबले सब से ज़्यादा लोग जहन्नम से आज़ाद करते हैं.
हज़रत अली (रज़ि.) अरफ़ा के दिन निम्नलिखित दुआ मांगते थे और अपने साथियों को भी इस दुआ को पढ़ने की तरग़ीब देते थेः
اَللّٰهُمَّ أَعْتِقْ رَقَبَتِيْ مِنَ النَّارِ وَأَوْسِعْ لِيْ مِنَ الرِّزْقِ الْحَلالِ وَاصْرِفْ عَنِّيْ فَسَقَةَ الْجِنِّ وَالْإِنْسِ
ए अल्लाह ! मेरी गरदन को जहन्नम की आग से आज़ाद फ़रमा दे और हलाल रोज़ी को मेरे लिए फ़राख़ और कुशादा फ़रमा दे और बुरे जिन और बुरे इन्सान को मुझ से दूर फ़रमा दे.
हाजी को चाहिए के वह वुक़ूफ़े अरफ़ा के वक़्त सो (१००) मर्तबा निम्नलिखित दुआ पढ़ेः
لَا إِلٰهَ إِلَّا اللهُ وَحْدَهُ لَا شَرِيْكَ لَهُ لَهُ الْمُلْكُ وَلَهُ الْحَمْدُ وَهُوَ عَلٰى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
अल्लाह के अलावह कोई माबूद नहीं है. वह अकेला है. उन का कोई शरीक नहीं है. उन ही के लिए (तमाम जहां की) बादशाहत है और उन ही के लिए (तमाम) तारीफ़ है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है.
फिर सो मर्तबा (१००) सुरए इख़्लास पढ़े और उस के बाद सो मर्तबा (१००) निम्नलिखित दुरूद पढ़ेः
اَللَٰهُمَّ صَلِّ عَلٰى مُحَمَّدٍ كَمَا صَلَّيْتَ عَلٰى إِبْرَاهِيْمَ وَآلِ إِبْرَاهِيْمَ إِنَّكَ حَمِيْدٌ مَّجِيْدٌ وَعَليْنَا مَعَهُمْ
ए अल्लाह ! दुरूद (अपनी ख़ास रहमत) भेज मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) पर जिस तरह तु ने दुरूद (अपनी ख़ास रहमत) भेजा हज़रत इब्राहीम (अलै.) पर और हज़रत इब्राहीम (अलै.) की औलाद पर. बेशक आप तारीफ़ के क़ाबिल और बुज़ुर्गो बरतर है. और उन के साथ हम पर भी (रहमत) नाज़िल फ़रमा.
हज़रत जाबिर (रज़ि.) से रिवायत है के रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने इरशाद फ़रमाया के जो भी मुसलमान (हाजी) अरफ़ा के दिन ज़वाल के बाद मैदाने अरफ़ात में क़िब्ले रूख़ हो कर वुक़ूफ़ करे और मज़कूरा बाला अज़कार पढ़े, तो अल्लाह तआला फ़रिश्तो कों उस के बारे में फ़रमाते हैं के
“ए मेरे फ़रिश्तो ! मेरे उस बंदे का क्या बदला है जिस ने मेरी तस्बीह की और मेरी वहदानियत की गवाही दी और मेरी बड़ाई और अज़मत बयान की, मुझे पेहचाना, मेरी तारीफ़ की और मेरे नबी (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) पर दुरूद भेजा. ए मेरे फ़रिश्तो ! तुम गवाह रहो के में ने उस को बख़्श दिया और उस को शफ़ाअत का शर्फ़ अता किया. अगर मेरा बंदा इस तमाम अहले मोक़िफ़ (अहले अरफ़ात) के लिए सिफ़ारिश करे, तो में उस की सिफ़ारिश क़बूल करूंगा.”
मुज़दलिफ़ा
मुज़दलिफ़ा पहोंचने के बाद हाजी के लिए ग़ुसल करना मुस्तहब है.
जब हाजी मुज़दलिफ़ा पहोंचेगा तो वह मग़रिब और इशा की नमाज़ को एक साथ पढ़ेगा. हाजी के लिए मग़रिब की नमाज़ अरफ़ा में तथा मुज़दलिफ़ा जाते हुए रास्ते में अदा करना जाईज़ नहीं है, बलके हाजी पर वाजिब है के वह मुज़दलिफ़ा में मग़रिब और इशा की नमाज़ एक साथ इशा के वक़्त में एक अज़ान और एक इक़ामत के साथ अदा करे.
मग़रिब की नमाज़ के बाद हाजी नफ़ल नमाज़ तथा सुन्नत नमाज़ नहीं पढ़ेंगा, बलके वह मग़रिब और इशा की सुन्नतें और नवाफ़िल इशा नमाज़ पढ़ने के बाद एक साथ पढ़ेगा.
अगर किसी शख़्स ने मग़रिब की नमाज़ अरफ़ा में तथा मुज़दलिफ़ा की तरफ़ जाते हुए रास्ते में पढ़ ली, तो उस की नमाज़ दुरूस्त नहीं होगी और उस पर वाजिब होगा के वह मुज़दलिफ़ा पहोंचने के बाद इशा के वक़्त में मग़रिब की नमाज़ का इआदा करे, क्युंकि उस दिन यअनी नवीं ज़िल हिज्जा के दिन मग़रिब नमाज़ का वक़्त हज्ज करने वालों के लिए वही है जो इशा नमाज़ का वक़्त है.
लिहाज़ा अगर कोई शख़्स इशा के वक़्त से पेहले मुज़दलिफ़ा पहोंच जावे, तो उस पर वाजिब है के वह इशा के वक़्त का इन्तिज़ार करे और जब इशा का वक़्त दाख़िल हो जाए, तो फिर वह मग़रिब और इशा की नमाज़ एक साथ पढ़े (यअनी पेहले वह मग़रिब की नमाज़ पढ़ेगा, फिर इशा की नमाज़ पढ़ेगा और उस के बाद वह उन दोनों नमाज़ों की सुन्नत तथा नफ़ल पढ़ेगा).
मुज़दलिफ़ा की रात में हाजी को चाहिए के वह ख़ूब इबादत तथा ज़िकर करे और दुआ तथा इस्तिग़फ़ार में अपना वक़्त गुज़ारे, क्युंकि यह रात इन्तिहाई महान और मुबारक रात है. हाजी मुज़दलिफ़ा में रात गुज़ारेगा और मुज़दलिफ़ा में फ़जर के वक़्त तक ठेहरेगा और फ़जर के बाद वह वुक़ूफ़ करेगा.
नोटः- औरतों, बच्चों, मरीज़ों और कमज़ोरों के लिए जाईज़ है के वह मुज़दलिफ़ा में रात न गुज़ारें, बलके मुज़दलिफ़ा पहोंचने के बाद वह सब मिना चले जाऐं और मिना में रात गुज़ारें.
हदीष शरीफ़ में वारिद है के नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने औरतों, बच्चों और कमज़ोरों को इजाज़त दी थी के वह मुज़दलिफ़ा पहोंचने के बाद मिना चले जाऐं और वह मिना में रात गुज़ारें.
दसवीं ज़िल हिज्जा
हाजी के लिए मस्नून है के जिस वक़्त सुबह सादिक़ का वक़्त दाखिल हो जाए उस वक़्त वह मुज़दलिफ़ा में फ़जर की नमाज़ पढ़े (अंधेरे में).
फ़जर की नमाज़ पढ़ने के बाद हाजी को चाहिए के वह क़िब्ले की तरफ़ रूख़ कर के वुक़ूफ़ करे (यअनी वह क़िब्ले की तरफ़ रूख़ कर के खड़े हो जाऐं और ख़ूब दुआ और इस्तिग़फ़ार करें) यह वुक़ूफ़ वाजिब वुक़ूफ़ शुमार किया जाता है, लिहाज़ा अगर किसी शख़्स से मुज़दलिफ़ा का यह वाजिब वुक़ूफ़ छूट जाए, तो उस पर दम वाजिब होगा.
अलबत्ता नबिए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) ने औरतों, बच्चों और कमज़ोरों (बुढ़ों) को इजाज़त दी थी के वह मुज़दलिफ़ा में रात न गुज़ारें, बलकि मुज़दलिफ़ा पहोंचने के बाद वह सीधे मिना चले जाऐं और वहीं रात गुज़ारें. तो उन लोगों पर मुज़दलिफ़ा का वुक़ूफ़ वाजिब नहीं है, लिहाज़ा अगर वह फ़जर की नमाज़ के बाद वुक़ूफ़ को छोड़ दें, तो उन पर दम वाजिब नहीं होगा.
हाजी के लिए तुलूए आफ़ताब से कुछ देर पेहले मुज़दलिफ़ा से मिना के लिए निकलना मस्नून है.
रमी
जब हाजी मुज़दलिफ़ा में हो, तो उस को चाहिए के वह मुज़दलिफ़ा से सत्तर (७०) कंकरियां (जो चने के बराबर हों) उठा ले. उन कंकरियों को रास्ते से तथा किसी और जगह से भी उठाना जाईज़ है. इसी तरह उन कंकरियों को मिना से भी उठाना जाईज़ है, मगर जमरात की जगह से न उठाई जाऐं (वह जगह जहां कंकरियां मारी जाती हैं).
जब हाजी मिना पहोंच तो वह जमरए अक़बा की रमी करेगा. उस दीन को (यअनी दसवीं ज़िल हिज्जह को) सिर्फ़ जमरए ऊक़्बह की रमी की जाएगी.
दसवी ज़िल हिज्जह की रमी का वक़्त सुबह सादिक़ से शुरू होता है और ग्यारहवीं ज़िल हिज्जह की सुबह सादिक़ तक रेहता है. मगर रमी का मस्नून वक़्त तुलुए आफ़ताब से लेकर ज़वाल तक है और ज़वाल के बाद से गु़रूबे आफ़ताब तक रमी करना जाईज़ है
ग़ुरूबे आफ़ताब के बाद से ग्यारहवीं ज़िल हिज्जह की सुबह सादिक़ तक रमी करना मकरूह है इल्ला यह के कोई उज़र हो (जैसे बीमारी, बुढ़ापा तथा लोगों की भीड़ की वजह से रमी की क़ुदरत न होना).
रमी का तरीक़ा
हाजी जमरए ऊक़्बह को सात कंकरियों के साथ मारेगा और हर कंकरी फैंकते वक़्त वह “अल्लाहु अकबर” कहेगा. नीज़ हर कंकरी फैंकते वक़्त तथा तमाम कंकरियों के फैंकने के बाद हाजी निम्नलिखित दुआऐं पढ़ेंः
بِسْمِ اللهِ وَاللهُ أَكْبَرْ رَغْمًا لِلشَّيْطَانْ وَحِزْبِه
अल्लाह के नाम से और अल्लाह सब से बड़े हैं. (में यह कंकरी फैंक रहा हुं) शैतान और उस के गिरोह को ज़लील करने के लिए.
اَللّٰهُمَّ اهْدِنِيْ بِالْهُدٰى وَقِنِيْ بِالتَّقْوٰى وَاجْعَلِ الْآخِرَةَ خَيْرًا لِّيْ مِنَ الْأُوْلٰى
اَللّٰهُمَّ اجْعَلْهُ حَجًّا مَّبْرٌوْرًا وَذَنْبًا مَغْفُوْرًا وَسَعْيًا مَّشْكُوْرًا
ए अल्लाह ! ख़ुसूसी हिदायत के ज़रीए मेरी रेहनुमाई फ़रमा और मुझे तक़्वा के ज़रीए (गुनाहों से) बचा ले और मेरे लिए आख़िरत को दुनिया से बेहतर बना. ए अल्लाह ! मेरे हज्ज को मक़बूल बना. गुनाह को माफ़ फ़रमा और मेरे मुजाहदा और कोशिश को मक़बूल बना.
दसवीं ज़िल हिज्जह को जमरए ऊक़्बह की रमी के बाद हाजी दुआ नहीं करेगा. बलके वह अपने ख़ैमे में वापस आएगा, क्युंकि इस दिन (दसवी ज़िल हिज्जह) को जमरए ऊक़्बह की रमी के बाद दुआ करना मस्नून नहीं है. अलबत्ता ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं ज़िल हिज्जह को जमरए सुगरा और जमरए वुस्ता की रमी के बाद दुआ करना मस्नून है.
हज्ज की इब्तिदा से लेकर दसवीं ज़िल हिज्जाह की रमी के वक़्त तक हाजी को चाहिए के वह कषरत से तलबियह पढ़ें. लेकिन जब हाजी दसवीं ज़िल हिज्जाह की रमी को शुरू करें, तो वह तलबियह पढ़ना बंद करेगा और हज्ज के आख़िर तक तलबियह नही पढ़ेगा.
ज़बह
दसवीं ज़िल हिज्जह को जमरए अक़बा की रमी के बाद हाजी को चाहिए के वह भेड़ अथवा बकरी की क़ुर्बानी करे अथवा गाय अथवा ऊंट के सातवें हिस्से की क़ुर्बानी करे (यइनी गाय तथा ऊंट की क़ुर्बानी में एक हिस्सा ले ले). इस क़ुर्बानी को “दमे शूकर” कहा जाता है.
दमे शुकर उन लोगों पर वाजिब है जो हज्जे तमत्तुअ अथवा हज्जे क़िरान करते हैं और दमे शुकर उन लोगों के लिए मुस्तहब है जो हज्जे इफ़राद करते हैं.
अगर कोई शख़्स मुसाफ़िर न हो और उस पर ईदुल अज़हा की क़ुर्बानी वाजिब हो, तो यह दमे शुकर ज़बह करना (हज्ज में) उस के ईदुल अज़हा की वाजिब क़ुर्बानी की तरफ़ से काफ़ी नहीं होगा, बलके उस पर ईदुल अज़हा की वाजिब क़ुर्बानी अलग से करनी पड़ेगी (भले वह मक्का मुकरमामे करे तथा अपने वतन मे करे).
हल्क
दमे शुकर की क़ुर्बानी के बाद मुतमत्तिअ (हज्जे तमत्तुअ करने वाला) और क़ारिन (हज्जे क़िरान करने वाला) के लिए जाईज़ है के वह अपना बाल मुंड़वाए तथा कतरवाए. दमे शुकर की क़ुर्बानी से पेहले उन (मुतमत्तिअ और क़ारिन) के लिए बाल मुंड़वाना तथा कतरवाना जाईज़ नहीं है, लिहाज़ा अगर कोई मुतमत्तिअ तथा क़ारिन दमे शुकर की क़ुर्बानी से पेहले अपना बाल मुंड़वाले तथा कतरवाले तो उस पर दम वाजिब होगा, क्युंकि उस ने वाजिब तरतीब के मुख़ालफ़त की है.
मुतमत्तिअ और क़ारिन पर वाजिब है के वह रमी, हलक़ और दमे शुकर की क़ुर्बानी में इस ख़ास तरीतब की रिआयत करे जो हदीष शरीफ़ में वारिद हुई है. हदीष शरीफ़ में इन तीन इबादात के लिए निम्नलिखित तरतीब बयान की गई हैः पेहले मुतमत्तिअ और क़ारिन जमरए अक़बा की रमी करेंगे फिर क़ुर्बानी करेंगे और आख़िर में वह अपने बाल मुंडवाऐंगे तथा कतरवाऐंगे.
बाल मुंड़वाने के बाद हाजी के लिए जाईज़ है के वह मूंछे काटे, बग़ल और ज़ेरे नाफ़ के बाद काटे और नाख़ुन वग़ैरह तराशे. बाल मुंडवाने तथा कतरवाने से पेहले हाजी के लिए मुंछे काटना और नाख़ुन वग़ैरह का तराशना जाईज़ नहीं है.
बाल मुंड़वाने के बाद मुहरिम (एहराम वाले शख़्स) के लिए वह तमाम चीज़ें हलाल हो जाती हैं जो एहराम की हालत में उस पर हराम थीं. अलबत्ता उस की बीवी अभी तक उस पर हराम है (यअनी उस के लिए बीवी से हमबिस्तरी करना तथा उस को शहवत से छुना जाईज़ नहीं है).
अपनी बीवी के अलावह तमाम दूसरी चीज़ें जो उस के लिए हराम थीं अब वह उस के लिए हलाल होगी. लिहाज़ा मुहरिम अपने एहराम वाले कपड़े को निकाल सकता है और सिले हुए कपड़े को पहन सकता है. नीज़ वह ख़ुश्बु भी अपने बदन पर तथा कपड़े पर लगा सकता है. जब मुहरिम तवाफ़े ज़ियारत करेगा तो उस की बीवी भी उस के लिए हलाल हो जाएगी.
अलबत्ता मुफ़रिद (हज्जे इफ़राद करने वाले) के लिए रमी के बाद तुरंत बाल मूंडवाना या कतरवाना जाईज़ है. क्युंकि मुफ़रिद दमे शुकर क़ुर्बानी नही करता है. क्युंकि दमे शुकर मुफ़रिद पर वाजिब नहीं है. बलके सिर्फ़ मुस्तहब है.
लेकिन अगर मुफ़रिद जानवर को ज़बह करना चाहे, तो इस सूरत में उस के लिए मुस्तहब है के वह ज़बह करे और फिर अपना बाल मुंडवाए तथा कतरवाए ((जैसे मुतमत्तिअ और क़ारिन करते हैं).
तवाफ़े ज़ियारत
हाजी को चाहिए के वह मुकर्रमा जाए और तवाफ़े ज़ियारत करे.
दसवीं ज़िल हिज्जह को तवाफ़े ज़ियारत करना सुन्नत है. अगर किसी ने दसवीं ज़िल हिज्जह को तवाफ़े ज़ियारत नहीं किया, तो उस के लिए जाईज़ है के वह तवाफ़े ज़ियारत को बारहवीं ज़िल हिज्जह के ग़ुरूबे आफ़ताब तक करे.
अलबत्ता अगर कोई औरत हैज़ तथा निफ़ास की वजह से इन दिनों (दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं ज़िल हिज्जह) में तवाफ़े ज़ियारत न कर सके, तो उस के लिए जाईज़ है के वह हैज़ तथा निफ़ास के ख़तम होने के बाद तवाफ़े ज़ियारत करे.
अगर किसी ने अभी तक (यअनी हलक़ के बाद) अपने एहराम के कपड़े को न उतारा हो और वह तवाफ़े ज़ियारत के लिए जाए, तो अगर तवाफ़े ज़ियारत के बाद वह सई करने वाला हो, तो वह तवाफ़े ज़ियारत में रमल और इज़तिबाअ करेगा.
अगर वह अपने एहराम के कपड़े को उतार कर सिले हुए कपड़े पेहन चुका हो, तो वह तवाफ़े ज़ियारत में इज़तिबाअ न करेगा, अलबत्ता अगर वह तवाफ़ के बाद सई करने वाला हो, तो वह तवाफ़े ज़ियारत में रमल करेगा.
अगर किसी शख़्स ने हज्ज शुरू करने से पेहले एक नफ़ल तवाफ़ किया और उस नफ़ल तवाफ़ के बाद उस ने सई किया इस निय्यत के साथ के यह सई मेरे तवाफ़े ज़ियारत के बाद की सई का क़ाईम मक़ाम होगा (यअनी यह सई तवाफ़े ज़ियारत के बाद की सई के बदले में होगा), तो इस सूरत में जब वह तवाफ़े ज़ियारत करेगा, तो वह अपने तवाफ़े ज़ियारत में रमल नहीं करेगा (क्युंकि रमल सिर्फ़ उस तवाफ़ में होता है जिस के बाद सई होती है).
तवाफ़े ज़ियारत के बाद हाजी आंठवी बार हजरे अस्वद का इस्तिलाम करेगा फिर दो रकअत वाजिबुत तवाफ़ अदा पढ़ेगा.
उस के बाद हाजी सई शुरू करेगा, लेकिन सई शुरू करने से पेहले वह नवीं बार हजरे अस्वद का इस्तिलाम करेगा फिर सफ़ा की तरफ़ बढ़ेगा और सई शुरू करेगा. जब हाजी सई मुकम्मल करे, तो वह दो रकअत नफ़ल नमाज़ पढ़ेगा.
तवाफ़े ज़ियारत और सई के बाद हाजी को चाहिए के वह मिना की तरफ़ लौट जाऐ और वहां रात गुज़ारे. जब हाजी तवाफ़े ज़ियारत से फ़ारिग़ हो जाऐ, तो अब उस की बीवी उस के लिए बीवी हलाल हो जाएगी.
ग्यारहवीं और बारहवीं ज़िल हिज्जह
ग्यारहवीं और बारहवीं ज़िल हिज्जह को हाजी तीनों जमरात की रमी करे. इन दिनों में रमी का वक़्त ज़वाल के बाद से शुरू होता है.
रमी का मस्नून तरीक़ा यह है के हाजी पेहले जमरए ऊला की रमी करे, फिर जमरए वुस्ता की और आख़िर में जमरए अक़बा की रमी करे.
जमरए ऊला और जमरए वुस्ता की रमी करने के बाद हाजी को चाहिए के वहां से हट जाऐ और किसी एसी जगह में जा कर अपने हाथों को उठा ले और दुआ करे.
यह बात ज़हन में रखे के जमरए अक़बा की रमी करने के बाद हाजी दुआ नहीं करेगा. क्युंकि जमरए उक़बा के बाद दुआ करना सुन्नत नहीं है, लिहाज़ा वह जमरए अक़बा की रमी करने के बाद तुरंत अपने ख़ैमे की तरफ़ लौट आएगा.
इन दिनों में (रमी के दिनो में यअनी ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं ज़िल हिज्जह) रमी के अलावह जब तक हाजी अपने ख़ैमे में हो, तो उस को चाहिए के वह अपना वक़्त इबादत में गुज़ारें. इसी तरह वह मिना में रात गुज़ारे, क्युंकि हाजी के लिए मिना में रात गुज़ारना सुन्नत है.
बारहवीं ज़िल हिज्जह को रमी करने के बाद हाजी को इख़्तियार है के वह मक्का मुकर्रमा चला जाए तथा मिना में क़याम करे और तेरहवीं ज़िल हिज्जह को तीनों जमरात की रमी करे.
मिना में तेरहवीं ज़िल हिज्जह को क़याम कर के तीनों जमरात की रमी करना बेहतर है और ज़्यादह षवाब का बाईष है बमुक़ाबला उस के के हाजी बारहवीं ज़िल हिज्जह की रमी के बाद मक्का मुकर्रमह चला जाए.
अगर कोई शख़्स बारहवीं ज़िल हिज्जह को ग़ुरूबे आफ़ताब तक मिना में क़याम करे, तो गु़रूबे आफ़ताब के बाद उस के लिए मिना से निकलना मकरूह होगा, लेकिन अगर वह रात में सुबह सादिक़ से पेहले मिना से निकल जाए, तो उस पर दम वाजिब नहीं होगा.
अलबत्ता अगर वह सुबह सादिक़ तक मिना में ठेहरा रहे, तो फिर उस पर वाजिब है के वह तेरहवीं ज़िल हिज्जा को रमी करे. तेरहवीं ज़िल हिज्जह को रमी का मुस्तहब वक़्त ज़वाल के बाद से शुरू होता है, लेकिन अगर कोई शख़्स सुबह सादिक और ज़वाल के दरमियानी समय में रमी करे, तो उस की रमी दुरूस्त होगी, मगर मकरूहे तनज़ीही होगी.
हज्ज के अरकान की अदायगी के बाद हाजी को चाहिए के वह मक्का मुकर्रमा की तरफ़ लोट जाए और क़याम करे.
मक्का मुकर्रमा में जब तक वह क़याम करना चाहे, वह क़याम करे. मक्का मुकर्रमा में क़याम के दौरान हाजी जितना ज़्यादा चाहे वह तवाफ़ और उमरह करें.
अलबत्ता हाजी यह बात ज़हन में रखे के अगर वह उमरह करना चाहे, तो उस को चाहिए के वह तेरहवीं ज़िल हिज्जह के बाद ही उमरह करे. क्युंकि नवीं ज़िल हिज्जह से तेरहवीं ज़िल हिज्जह साल के इन पांच दिनों में उमरह करना जाईज़ नहीं है (मकरूहे तहरीमी है).
मक्का मुकर्रमा से रवानगी और तवाफ़े विदाअ
मक्का मुकर्रमा से रवाना होने से पेहले तवाफ़े विदाअ करना वाजिब है, लिहाज़ा अगर कोई हाजी यह तवाफ विदाअ छोड़ दे, तो उस पर दम वाजिब होगा.
अलबत्ता अगर कोई औरत हैज़ की हालत में हो तथा कोई हाजी बीमार हो और वह तवाफ़े विदाअ पर क़ादिर न हो, तो उन पर तवाफ़े विदाअ वाजिब नहीं होगा, लिहाज़ा अगर वह तवाफ़े विदाअ को छोड़ दे, तो उन पर दम वाजिब नहीं होगा.
अगर किसी शख़्स ने तवाफ़े विदाअ नहीं किया, मगर उस ने हज्ज के बाद कोई नफ़ल तवाफ़ किया, तो यह नफ़ल तवाफ़ तवाफ़े विदाअ के बदले में होगा और कोई मज़ीद तवाफ़ न करने की वजह से उस पर दम वाजिब नहीं होगा.