मुहब्बत का बग़ीचा (पांचवा प्रकरण)‎

بسم الله الرحمن الرحيم

महामारी के दौरान शहादत वाली मौत

“दीने इस्लाम” इन्सान पर अल्लाह तबारक व तआला की तमाम नेअमतों में से सब से बड़ी नेअमत है. दीने इस्लाम की मिषाल उस हरे हरे भरे बाग़ की सी है, जिस में प्रकार प्रकार के फलदार झाड़, खुश्बूदार फूल और उपयोगी वनस्पतियां होती हैं. जब इन्सान उस बाग़ में क़दम रखता है, तो उस को कुछ चीज़ें छायां दार और धूप की गरमी से बचाने वाली, कुछ चीज़ें स्वादिष्ट, कुछ चीज़ें आंखों को प्रसन्न करने वाली और कुछ ख़ुश्बूदार चीज़ें जो रूह के लिए खुशी का कारण नज़र आती हैं, मगर इस हरे भरे बाग़ से इन्सान उस वक़्त आनंद दायक हो सकता है जब के वह उस में दाख़िल हो जाए और उस की तमाम ख़ूबियों को खुले दिल से निरीक्षण करे और उस से फ़ाईदा उठाए.

जिस तरह हरे भरे बाग़ से लाभ हासिल करना उसी वक़्त शक्य है, जबके इन्सान उस में दाख़िल हो और अपनी आंखों से उस के हुस्न और ख़ूबी का दीदार करे और फ़ाईदा उठाए, इसी तरह इस्लाम की सौंदर्यता और कृपाओं और उस के अमर्यादित फ़ज़ाईल तथा बरकात को वही व्यक्ति हासिल कर सकता है, जो इस्लाम में दाख़िल हो जाए और उस की तमाम शिक्षाओं को अपने दिल से क़बूल करे और उन्हें अपने जीवन में अपनाए.

क़र्आने करीम में अल्लाह तआला का फ़रमान हैः

یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوا ادۡخُلُوۡا فِی السِّلۡمِ کَآفَّۃً

“ए इमान वालो ! पूरे तौर पर इस्लाम में दाख़िल हो जावो”

इस आयते करीमा में अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने इस्लाम को “सिल्म” (यअनी चैनो सुकून) से तअबीर किया है, उस में इस बात की तरफ़ इशारा है के दुनिया में मात्र इस्लाम ही के ज़रिए से इन्सान चैनो सुकून हासिल कर सकता है. हक़ीक़त यह है के जब इन्सान अपने जीवन में इस्लामी नीज़ाम और इस्लामी शिक्षाओं और लोगों के सामने अपने अमल से भी इस्लाम की ख़ुबियों को ज़ाहिर करे, तो जिस माहौल में भी वह जाएगा, वहां चैनो सुकून की फ़िज़ा बन जाएगी. इसी तरह अगर पूरे आलम के सारे मुसलमान इस्लामी शिक्षाओं पर अमल करने वाले बन जाऐं और हर जगह इस्लाम के उच्च संस्कार तथा किरदार की तब्लीग़ तथा जाहेरात करने में लगें, तो पूरी दुनिया में अमन तथा सुकून क़ाईम हो जाएगा और मुसलमानों के साथ ग़ैर मुस्लिम भी चैनो सुकून के साथ जीवन गुज़ारेंगे और इस्लाम की ख़ूबी और सौंदर्यता को निहारेंगे.

इस्लामने हमें बहोत सारे रास्ते सिखलाए हैं जिन के ज़रिए हम जन्नत तक पहोंच सकते हैं. मषलन अल्लाह तआला के अधिकार (नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज्ज) अदा करने के ज़रिए हम जन्नत में दाख़िल हो सकते हैं, इसी तरह बंदों के अधिकार (वालिदैन, रिश्तेदार, पड़ोसी वग़ैरह के अधिकार) अदा करने के ज़रिए हम जन्नत में दाख़िल हो सकते हैं. तथा शरिअत ने ग़रीबों, तंग दस्तों और यतीमों के साथ शफ़क़त करने और उन की सहायता और सहयोग को भी जन्नत तक पहोंचने का रास्ता बताया है.

दर असल इस्लाम वाहिद मज़हब है जो इस क़दर निराला है के उस ने हमें ऐसे रास्ते बताए हैं, जिन पर अमल करके हम इस दुनिया से चले जाने के बाद भी ख़ुद भलाई और ख़ैर हासिल कर सकते हैं और दूसरों को भी फ़ाईद पहोंचा सकते हैं.

उन में से एक रास्ता “शहादत” का है. जब अल्लाह तआला किसी बंदे को आख़िरत में बुलंद मक़ाम अता करना चाहते हैं, तो उस को शहादत का दरजा नसीब फ़रमाते हैं. शहीद को बहोत सारी ख़ुसूसियतों से नवाज़ा जाता है. तथा उन में से यह के उस के सारे गुनाह बख़्श दिए जाते हैं, वह क़बर के अज़ाब से महफ़ूज़ हो जाता है, उस को आख़िरत में अजरे अज़ीम और बुलंद मर्तबा अता किया जाता है और उस को यह सम्मान हासिल होता है के वह सत्तर (७०) लोगों को जन्नत में ले जाए.

शरीअत में असल शहीद वह है जो मैदाने जंग में अपनी जान अल्लाह तआला के वास्ते क़ुर्बान कर दे, मगर अल्लाह तबारक व तआला उम्मते मुहम्मदिया (अला साहिबिहा अलफ़ुन अलफ सलातो सलाम) को बहोत से ऐसे असबाब अता फ़रमाते हैं, जिन के ज़रिए यह उम्मत शहादत के मर्तबे पर पहोंच सकती है. अहादीषे मुबारका में शहादत के बहोत से असबाब का ज़िकर आया है. उन में से एक यह है के इन्सान ताऊन (महामारी) से मर जाए.

हदीष शरीफ़ मे वारिद है के “जो व्यक्ति ताऊन (महामारी) से मर जाए, वह शहीद है. उस के सारे गुनाह माफ़ कर दिए जाते हैं.” नीज़ हदीष शरीफ़ में आया है के “ताऊन (महामारी) के दौरान प्राकृतिक मौत मरने वाला भी शहीद है, बशर्त यह है के वह ताऊन (महामारी) की जगह से भाग न जाए और अल्लाह तआला के फ़ैसले पर राज़ी रहे.” (बुख़ारी शरीफ़)

अलबत्ता यह बात अच्छी तरह ध्यान रहे हे के ताऊन (महामारी) से मरने वाले को शहादत का मर्तबा मात्र उसी सूरत में हासिल होगा, जबके वह अल्लाह तआला के फ़ैसले पर दिलो जान से राज़ी रहे. जब हज़रत उमर(रज़ि.) के शासनकाल में शाम के मुल्क में एक बहुत घातक महामारी फैली, जिस को “ताऊने अमवास” कहा जाता है, तो मुसलमानों के अमीर हज़रत अबु उबैदह बिन अल जर्राह (रज़ि.) ने लोगों के सामने ख़ुत्बा देते हुए फ़रमायाः “ए लोगो ! यह महामारी तुम्हारे लिए रहमत है. तुम्हारे नबी (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की दुआ है और तुम से पेहले नेक लोगों की वफ़ात का ज़रिआ थी. फिर हज़रत अबु उबैदह (रज़ि.) ने दुआ फ़रमाई” ए अल्लाह ! उसे इस महामारी में से हिस्सा अता फ़रमा. उस के बाद हज़रत अबु उबैदह (रज़ि.) उस महामारी के शिकार हो गए और उसी से उन का इन्तिक़ाल हो गया.

हज़रत अबु उबैदह (रज़ि.) की शहादत के बाद हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ि.) उन के उत्तराधिकारी बने. उन्होंने भी लोगों के सामने ख़ुत्बा देते हुए फ़रमायाः “ए लोगो ! यह महामारी तुम्हारे लिए रहमत है. यह तुम्हारे नबी (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की दुआ है और तुम से पेहले लोगों की वफ़ात का ज़रिए थीं.” फिर हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ि.) ने दुआ फ़रमाई “ए अल्लाह ! मुआज़ के ख़ानदान को इस महामारी में से हिस्सा अता फ़रमा.”

किताबों मनक़ूल है के जब हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ि.) ख़ुत्बा दे कर मस्जिद से अपने घर पहोंचे, तो उन्होंने अपने बेटे को देखा के वह उस वबा (महामारी) की लपेट में आ चुका है. उन्होंने अपने बेटे का ईलाज मुआलजा ख़ुद किया, यहांतक के वह वफ़ात पा गए. अभी उन की वफ़ात को कुछ ही दिन गुज़रे थे के हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ि.) को अपने हाथ पर कुछ फोड़े फुन्सियां नज़र आईं जिन को ताऊन (महामारी) की अलामत समझी जाती थीं. हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ि.) ख़ुशी से बार बार अपने हाथ को देखते और फ़रमातेः “में दुनिया के तमाम ख़ज़ानों को उस के बदले में लेने के लिए तय्यार नहीं हुं.” और अंतमें उसी ताऊन (महामारी) से हज़रत मुआज़ बिन जबल (रज़ि.) का भी इन्तिक़ाल हो गया.

उपरोक्त वाक्यों में हम ने निरीक्षण किया के सहाबए किराम (रज़ि.) ने वबा (महामारी) को किस निगाह से देखा और उस के बारे में उन्होंने क्या रवय्या इख़्तियार किया. सहाबए किराम (रज़ि.) अल्लाह तआला के फ़ैसले पर बेहद ख़ुश और राज़ी थे क्युंकी उन को अच्छी तरह मालूम था के यह वबा (महामारी) अल्लाह तआला की ख़ुसूसी रहमत और आख़िरत में शहादत के रूत्बे का कारण है. यही वजह है के वह पांच समय की फ़र्ज़ नमाज़ों की अदायगी के लिए मस्जिद भी जाते थे और बिमारों की देख भाल करते थे.

महामरी तथा किसी भी मुसीबत से पिडित व्यक्ति के लिए छ (६) क़िमती बातेः

हज़रत मौलान अशरफ़ अली थानवी (रह.) ने मुसीबत में घिरे हुए व्यक्ति के लिए छ (६) क़ीमती अहकाम बयान फ़रमाए हैः

“(१) फ़रमाया के मुसीबत की हालत में कसोटी हो तो सबर किया जावे के मोमीन की यही शान है, चुनांचे रसूलुल्लाह (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का इरशाद हैः

إن أصابته سراء شكر، فكان خيرا له، وإن أصابته ضراء، صبر فكان خيرا له

“मोमीन की अजीब हालत है के अगर उस को कोई ख़ुशी पहोंचती है शुकर करता है और अगर मुसीबत पहोंचती है सबर करता है, तो दोनों हालतों में नफ़ा रहा”

(२) फ़रमाया के ख़ुदा की रहमत से मुसीबत में मायूस न हो बलकि फ़ज़ल व अल्लाह तआला के करम का उम्मीदवार रहे क्युंकि असबाब से उंची भी कोई चीज़ है, तो मायूसी की बात वह कहे जिस का इमान तक़दीर पर न हो. अहले दीन का तरीक़ा तो अल्लाह तआला की मरज़ी है और उस पर राज़ी रेहना है.

(३) मुसीबत की वजह से दूसरे शरीअत के अहकाम में कोताही न करे. चाहे वह हुक़ूक़ुल्लाह से संबंधित हों (मषलनः मस्जिद में नमाज़ के लिए जाना और हमेशा की तरह नमाज़ अदा करना वग़ैरह) या वह हुक़ूक़ुल इबाद से संबंधित हों (मषलनः बीमारों की इयादत करना, उन की तीमारदारी करना, मय्यित की नमाज़े जनाज़ा और कफ़न दफ़न वग़ैरह में शिर्कत करना).

(४) ख़ुदा से उस मुश्किल के आसान कर देने की दुआ करते रहें और तदबीरों में व्यस्त रहें मगर तदबीर को कारगर (लाभदायक) न समझे (और दुआ का हुकम इस लिए है के तदबीर में बग़ैर दुआ के बरकत नहीं होती).

(५) इस्तिग़फ़ार करते रहो यअनी अपने गुनाहों से माफ़ी चाहो.

(६) अगर मुसीबत हमारे किसी भाई मुसलमान पर नाज़िल हो तो उस को अपने ऊपर नाज़िल समझा जावे उस के लिए वैसी ही तदबीर की जाए जैसा के अगर अपने ऊपर मुसीबत नाज़िल होती तो उस वक़्त ख़ुद करते. नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) का इरशाद है के “तुम में से कोई कामिल इमान वाला नहीं हो सकता, यहां तक के वह अपने भाई के लिए वही पसंद करे, जो वह अपने लिए पसंद करता है.””

हम दुआ गो हैं के अल्लाह तआला पूरी उम्मत को दीन की सहीह फ़हम अता फ़रमाए और जीवन के तमाम उमूर में नबीए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की सुन्नतों और सहाबए किराम (रज़ि.) के नक़्शे क़दम पर चलने की तौफ़ीक़ मरहमत फ़रमाए. आमीन या रब्बल आलमीन

Source: http://ihyaauddeen.co.za/?p=17107


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