मदीना मुनव्वरह की सुन्नतें और आदाब – १

मदीना मुनव्वरह की ज़ियारत

मदीना मुनव्वरह में हज़रत रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) के रवज़ए मुबारक पर हाज़री इन्तिहाई अज़ीम सआदत और बड़ी नेअमतों में से है जिस से किसी मोमिन को सरफ़राज़ किया जा सकता है.

अल्लाह सुब्हानहु वतआला जिस शख़्स को यह सआदत नसीब फ़रमाए, उस को चाहिए के उस की ख़ूब क़दर करे और उस मौक़े से ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाए.

फ़िक़हे हनफ़ी के मशहूर फ़क़ीह और जलीलुल क़दर मुहद्दिष मुल्ला अली क़ारी (रह.) ने लिखा है के बिल इत्तिफ़ाक़ तमाम मुसलमानों के नज़दीक हुज़ूरे अक़दस (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की ज़ियारत अहम तरीन नेकियों में से है और अफ़ज़ल तरीन इबादात में से है और आख़िरत के अअला दरजात तक पहोंचने के लिए कामयाब ज़रीया और पुर उम्मीद वसीला है.

दुर्रे मुख़तार में लिखा है के हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की क़बरे मुबारक की ज़ियारत मनदूब है, बलके बाज़ उलमा ने उस शख़स के हक़ में जिस के पास माली वुसअत हो वाजिब कहा है. मशहूर फ़क़ीह अल्लामा शामी (रह.) ने हाफ़िज़ इब्ने हजर (रह.) से इस क़ौल को नक़ल किया है.

यक़ीनन नबिए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) के जितने एहसानात उम्मत पर हैं, उन का तक़ाज़ा यह है के अगर हमारे पास माली वुस्अत हो, तो हम नबिए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) के रवज़े के ज़ियारत करें. बेशक यह बेहद महरूमी की बात है के आदमी हज्ज तथा उमरह के लिए सफ़र करे और ताक़त व माली वुस्अत होने के बावजूद वह रवज़ए मुबारक की ज़ियारत न करे.

अईम्मए अरबअह के सब मज़ाहिब इस बात पर मुत्तफ़िक़ है के नबिए करीम (सल्लल्लाहु अलयहि वसल्लम) की क़बर मुबारक की ज़ियारत करना मुस्तहब है.


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